पुरालेख | जून 2009

हालात

ज़ख्म तुम अपने किसी को भी दिखाया न करो
आंसुओं आंख की ………………………………..
घर के हालात …………………………………..
साथ खुशबू के अहाते में फिरा करते है
फूल के पेड़ को आंगन में लगाया न करो
बांस की तपती हुई आग में जलने दो मुझे
आस के बादलों सर पर मेरे ये साया न करो
आंसुओ आंख की ……………………
घर के हालात ……………………………….
आज के दौर का पैगाम येही है लोगों
कोई गिर जाए भूले से तो उठाया न करो
आंसुओ आँख ………………………
घर के हालात
………………………..

‘नीले जहर’ के शिकंजे में किशोर

कोटा. घर-घर में इंटरनेट पहुंचने से मंदे पड़े साइबर कैफे के बिजनेस को अब कैफे संचालक कम उम्र व नादान किशोरों को पोर्र्नो साइट के जरिए अश्लील फिल्में परोसकर मोटी कमाई कर रहे हैं। उन्हें इससे कोई सरोकार नहीं कि इस ‘नीले जहर’ से मासूमों के मन-मस्तिष्क पर क्या बुरे प्रभाव पड़ेंगे। हाल ही में विज्ञाननगर इलाके में छात्रों को पोर्न साइट दिखाते एक साइबर कैफे संचालक को पकड़ा गया था। शहर में यह पहला मामला नहीं है।

शहर में करीब तीन सौ साइबर कैफे हैं, जिनमें कई साइबर कैफे केवल पोर्न साइट दिखाने के धंधे में मशगूल हैं। जहां इंटरनेट के उपयोग के लिए साइबर कैफे में दस रुपए प्रतिघंटा शुल्क वसूला जाता है, वहीं पोर्न साइट दिखाने के लिए कैफे संचालकों द्वारा मुंहमांगी कीमत वसूल की जा रही है। जो पचास रुपए से लेकर सौ रुपए तक प्रति व्यक्ति होती है।



इन कैफे के ज्यादातर ग्राहक कोचिंग विद्यार्थी हैं, जो अपने घर से तो डॉक्टर, इंजीनियर बनने का सपना लेकर आए, लेकिन कैफे संचालकों ने उन्हें इस ‘नीले जहर’ का चस्का ऐसा लगाया कि रात-रातभर पोर्न साइट देखते रहते हैं। नए कोटा क्षेत्र के जवाहरनगर, तलवंडी, विज्ञाननगर, दादाबाड़ी क्षेत्र में स्थित कई कैफे सुबह 4-5 बजे तक खुलते हैं। रात को 10 बजे बाद इनमें पोर्न साइट दिखाई जाती है। पुलिस ने जब एक-दो बार छापा मारा, तो अब ये संचालक बच्चों को पैदल बुलवाते हैं और कैफे में लेने के बाद बाहर से शटर बंद कर देते हैं।

पहले भी पड़ चुके हैं छापे

शहर में इससे पहले भी कई बार अश्लीलता परोसते हुए साइबर कैफे पर छापे पड़ चुके हैं। तलवंडी क्षेत्र में तो एक कैफे में बाकायदा कम्प्यूटर व टीवी लगाकर अश्लील फिल्में दिखाई जा रही थीं। पुलिस ने छापा मारा और कैफे को ही सीज कर दिया। शॉपिंग सेंटर स्थित एक कैफे में तीन माह पूर्व ही छापा मारा गया था।

‘कैफे में पोर्न साइट दिखाने पर रोक लगाने की बजाय सरकार प्रोक्सी को ही ब्लॉक कराए। जब तक प्रोक्सी से पोर्न साइट आती रहेंगी, इन पर रोक नहीं लग सकती। सरकार खुद इस दिशा में आज तक कोई कदम नहीं उठा पाई। बीएसएनएल सरकार का उपक्रम है। उससे भी नेट यूज करते समय पहले पोर्न व ट्रिपल एक्स साइट खुलती है। जब बीएसएनएल ही इस पर रोक नहीं लगा सका तो घर-घर में नेट पर उपलब्ध पोर्न साइट को कैसे रोका जा सकता है। पुलिस को इसके साथ ही शहर में ठेलों व दुकानों पर उपलब्ध अश्लील सीडी पर भी प्रतिबंध लगाना चाहिए।’

पुनीत माहेश्वरी, अध्यक्ष, साइबर कैफे एसोसिएशन

शिकायतों के बाद अश्लीलता परोसने वाले कैफे संचालकों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जा रही है। इस संबंध में नए कोटा क्षेत्र के कैफे संचालकों की बैठक ली गई है। उन्हें साइबर एक्ट, 2007 के बारे में जानकारी देकर इसके पालन की हिदायत देकर तीन दिन की मोहलत दी गई है। तीन दिन बाद साइबर कैफे पर आकस्मिक निरीक्षण किया जाएगा। और गड़बड़ी मिलने पर कैफे को सीज कर संचालक के खिलाफ आईटी एक्ट के तहत कार्रवाई की जाएगी।’

अंशुमान सिंह भौमिया, एएसपी

अश्लील फिल्में देखने से बच्चों के मन व मस्तिष्क पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उसके सोचने की दिशा बदल जाती है। बच्च जिस उद्देश्य को लेकर कोटा आया है उससे भटक जाता है। यह एक तरह का नशा है, जिसके परिणामस्वरूप युवा पीढी कुंठित होती जा रही है। वह हमेशा बुरी कल्पनाओं में जीता है। इसके लिए जितना जिम्मेदार पुलिस व प्रशासन है, उतने ही जिम्मेदार हम व समाज भी है। बच्चों के लिए कोई सोशल नेटवर्क नहीं है।

पीएन दुबे, व्याख्याता, समाजशास्त्र

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कोई हिंदी पर भी ध्यान दो

दीपिका कुलश्रेष्ठ

Journalist, bhaskar.com

हाल ही में अंग्रेजी भाषा में शब्दों का भंडार 10 लाख की गिनती को पार कर गया पर हमारी मातृभाषा हिंदी का क्या, जिसमें अभी तक मात्र 1 लाख 20 हज़ार शब्द ही हैं। कुछ लोगों का मानना है कि अंग्रेजी भाषा का 10 लाख वां शब्द ‘वेब 2.0’ एक पब्लिसिटी का हथकंडा है और कुछ नहीं। जो भी हो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान में अंग्रेजी भाषा में सर्वाधिक शब्द हैं।

विभिन्न भाषाओं में शब्द-संख्या

अंग्रेजी- 10,00,000

चीनी- 500,000+

जापानी- 232,000

स्पेनिश- 225,000+

रूसी- 195,000

जर्मन- 185,000

हिंदी- 120,000

फ्रेंच- 100,000

(स्रोत- ग्लोबल लैंग्वेज मॉनिटर 2009)

अंग्रेजी में उन सभी भाषाओं के शब्द शामिल कर लिए जाते हैं जो उनकी आम बोलचाल में आ जाते हैं। लेकिन हिंदी में ऐसा नहीं किया जाता। जब जय हो अंग्रेजी में शामिल हो सकता है, तो फिर हिंदी में या, यप, हैप्पी, बर्थडे आदि जैसे शब्द क्यों नहीं शामिल किए जा सकते? वेबसाइट, लागइन, ईमेल, आईडी, ब्लाग, चैट जैसे न जाने कितने शब्द हैं जो हम हिंदीभाषी अपनी जुबान में शामिल किए हुए हैं लेकिन हिंदी के विद्वान इन शब्दों को हिंदी शब्दकोश में शामिल नहीं करते। कोई भाषा विद्वानों से नहीं आम लोगों से चलती है। यदि ऐसा नहीं होता तो लैटिन और संस्कृत खत्म नहीं होतीं और हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू आदि भाषाएं पनप ही नहीं पातीं। उर्दू तो जबरदस्त उदाहरण है। वही भाषा सशक्त और व्यापक स्वीकार्यता वाली बनी रह पाती है जो नदी की तरह प्रवाहमान होती है अन्यथा वह सूख जाती है

क्या है आपकी राय क्या हिंदी में नए शब्दों को जगह दी जनि चाहिए,अपनी राय कमेंट्स बॉक्स में जाकर दें!

देनिक भास्कर.कॉम से साभार

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क्षण से पल ओ पल से घड़ी, घड़ी से दिन बन जाता है

समय

क्षण से पल ओ पल से घड़ी, घड़ी से दिन बन जाता है।
इसका बढ़ते रहना काम समय कब वापस आता है।।
पंचतत्व निर्मित है देह ,देह मे बसे हुए हैं प्राण,
प्राण में द्युतिमान हो प्रेम ,पे्रम में दिल रम जाता है।
नित प्रेम ही जीवन सार ,सार को खोज न पाये मान,
मान को त्याग हुआ जो आर्य, आर्य वो श्रेष्ठ कहाता है।
आर्य छॉड़ि देत निज कर्म , कर्म का बन जाता है काम,
काम में जो रमता सन्त सन्त वो असन्त कहाता है।
साम में ही सम्भव है दाम , दाम से बच जाता है दण्ड,
दण्ड से बचे जाने भेद ,भेद वो श्रेश्ठ कहाता है।
भेद को जाना हुआ वो एक , एक में ओंकार का वास,
वास वह ही पाने की चाह राष्ट्रप्रेमी ध्याता है।

वो वीक प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गये

प्रभात शुंगलू
एडिटर स्पेशल असाइनमेंट

पिछले पांच साल लाल कृष्ण आडवाणी कहते रहे कि मनमोहन सिंह वीक प्राइम मिनिस्टर हैं। यूपीए की सत्ता का रिमोट कंट्रोल पांच साल 10 जनपथ यानी सोनिया गांधी के पास था। लेकिन आडवाणी जी वरुण के मामले पर चुप बैठे रहे। वरुण के जहरीले भाषण को एक बार भी कंडेम नहीं किया। एक बार भी पार्टी को नहीं कहा कि वरुण के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। शायद वरुण के भड़काऊ बयानों में वो अपने पुराने दिनों की मिरर इमेज देख रहे थे। इसलिये हिम्मत नहीं जुटा पाए कि वरुण से कहें अपनी गलती की माफी मांगे वर्ना टिकट वापस ले लिया जायेगा। ये कहते तो वीक माने जाते।
आडवाणी ने अपने युवा साथी शिवराज से भी कुछ नहीं सीखा। जिस दिन वरुण की सीडी का खुलासा हुया उस दिन शिवराज ने डैमेज कंट्रोल के तहत मुस्लिम संगठनों से बातचीत की। उन्हें भरोसा दिलाया वरुण के जहरीले बयान से वो कतई इत्तेफाक नहीं रखते। शिवराज ने वीकनेस दरकिनार की और हिम्मत दिखाई। आडवाणी जी सर्वजन का प्रधानमंत्री बनने का दावा नहीं कर पाए। ये रही उनकी वीकनेस।
जब गुजरात दंगे हुए तब भी आडवाणी जी की वीकनेस नजर आई। मोदी के खिलाफ चूं नहीं कर पाए। अहमदाबाद की सड़कों पर लाशें बिछा दी गयीं पर मोदी सरकार पर उंगली नहीं उठाई। सहयोगियों ने धित्कारा मगर आडवाणी मोदी पर चुप्पी मारे बैठे रहे। देश के सबसे बड़े और लंबे दंगे गुजरात में हुए मगर पूर्व गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाए कि मोदी से इस्तीफा मांग लें। वाजपेयी ने भी मोदी को राजधर्म का पाठ पढ़ाया मगर आडवाणी के हिम्मत की दाद देनी होगी। मोदी के साथ और मोदी के लिये डटे रहे। बड़े हिम्मती उप प्रधानमंत्री थे। वीक होते तो इस्तीफा दे देते।
पिछले दिनों गुजरात हाईकोर्ट ने मोदी और उनकी सरकार के खिलाफ दंगों की तफ्तीश स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम से कराने का आदेश दिया। ये भी कहा कि धर्म के नाम पर दंगे करवाना एक प्रकार का आतंकवाद है। लेकिन आडवाणी मोदी को ये नहीं कह पाए कि फरवरी 2002 के दंगों के लिये वो जनता से माफी मांगें। क्योंकि जिस बिल्डिंग के शिखर पर वो चढ़ना चाहते थे आडवाणी के मुताबिक उसकी नींव तो मोदी ने ही रखी थी। फिर वही वीकनेस। आडवाणी मोदी के आभामंडल में इतने प्रभावित थे कि इन चुनावों में आडवाणी कै बाद अगर किसी पार्टी नेता ने धुंआधार प्रचार किया तो वो मोदी ही थे। यही नहीं प्रचार के बीचों बीच मोदी भी बीजेपी के दूसरे पीएम इन वेटिंग बन गए। यानी आडवाणी फिर वीक पड़ गए। लिहाजा नतीजे भी वीक!
आडवाणी जी अगर वीक न होते तो क्या नवीन पटनायक उन्हें छोड़ कर जाते। आडवाणी वीक न होते तो क्या कंधमाल में वीएचपी और संघ के लुम्पेन तत्वों का वो नंगा नाच होता। एक स्वामी की हत्या को राजनीतिक रंग दिया गया क्या वो रोका नहीं जा सकता था। इससे पहले भी ग्राहम स्टेन्स के मामले में भी आडवाणी चुप थे। तब भी तो वो देश के गृहमंत्री थे। मगर वीक थे। क्या करते। जब प्रधानमंत्री बनने का रास्ता बनाने में जुटे तो कतार में खड़े हुए उसी मनोज प्रधान को टिकट दे दिया जो कंधमाल दंगो का मुख्य आरोपी है। आडवाणी जी मजबूर थे। मजबूत होते तो टाइटलर और सज्जन कुमार की तर्ज पर प्रधान का भी टिकट काटते। और वीकनेस का आरोप किसी और पर न मढ़ते।
जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराई गयी तब भी उपद्रवियों को रोकने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। शोक में चले गये। वीकनेस के कारण ‘आंखे से आंसू छलक’ आये थे। और ऊपर से तुर्रा ये कि प्रधानमंत्री बनने की चाह में फिर मंदिर मुद्दे को तूल दे दिया। कहा वो मुद्दा भूले ही कब थे। उनके सेनापति राजनाथ सिंह तो नागपुर कार्यकारिणि में यहां तक दावा कर गए कि पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला तो मंदिर वहीं बनाएंगे।
कहीं ऐसा तो नहीं कि आडवाणी की पार्टी में चल ही नहीं रही हो। कहीं ऐसा तो नहीं उनके अपने ही उनकी न सुन रहे हों। भीष्म पितामह को मानते तो सब हैं लेकिन पितामह की सुनता कोई नहीं। सुधांशु मित्तल एपिसोड से तो आडवाणी के लाडले जेटली भी आडवाणी को मुंह बिचकाते दिखे। और अगर आडवाणी का प्रधानमंत्री बनने का सपना सच हो भी जाता तो क्या शपथ लेकर कह सकते थे कि सत्ता का कंट्रोल और रिमोट कंट्रोल दोनो उनके हाथ में होता – नरेन्द्र मोदी के हाथ में नहीं। मोहन भागवत या प्रमोद मुथाल्लिक के हाथ में नहीं।
आडवाणी जब गृह मंत्री थे तब वीक दिखे, उप प्रधानमंत्री बने तो चेलों ने वीक कर दिया, प्रधानमंत्री की दावेदारी की तो वरुण ने भी वीकनेस पर चोट कर दी। वीकनेस के इतने लंबे एक्सपीरियेंस के बावजूद आडवाणी पहले ऐसे नेता हैं जो ऐलानिया 7 रेस कोर्स की दौड़ में शामिल थे। लेकिन पब्लिक ने फैसला सुना दिया है। उसे वीक प्रधानमंत्री नहीं चाहिए। आडवाणी देश के वीक प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए। अब देश उन्हें ‘द बेस्ट’ पीएम इन वेटिंग के तौर पर जरूर याद रखेगा।

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हमारा समाज़ व स्त्री


आखिर क्योंसमाज़ स्त्री को हमेशा पिछले पायदान पर ही चाहता है??युक्ति-युक्ति पूर्ण आलेख पडिये ,देवेन्द्र साहू का–ओर सोचिये समाझिये—-

लो क सं घ र्ष !: मुंद जाते पहुनाई से


परिवर्तन नियम समर्पित ,
झुककर मिलना फिर जाना।
आंखों की बोली मिलती ,
तो संधि उलझते जाना॥

संध्या तो अपने रंग में,
अम्बर को ही रंग देती।
ब्रीङा की तेरी लाली,
निज में संचित कर लेती॥

अनगिनत प्रश्न करता हूँ,
अंतस की परछाई से।
निर्लिप्त नयन हंस-हंस कर,
मुंद जाते पहुनाई से ॥

-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ‘राही’

लो क सं घ र्ष !: संघी कारसेवको से कांग्रेस को बचाएँ राहुल -2

वास्तव में कांग्रेस में अपना आशियाना बनाकर आगे अपनी पार्टी को शक्ति एवं उर्जा देने की भाजपा की परम्परा रही है। वर्ष 1980 में जब उस ज़माने के कांग्रेसी युवराज संजय गाँधी के अनुभवहीन कंधो की सवारी करके कांग्रेस अपनी वापसी कर रही थी और दोहरी सदाशयता का दंश झेल रहे भाज्पैयो को अपनी डूबती नैय्या के उबरने का कोई रास्ता नही सूझ रहा था तो संजय गाँधी द्वारा बने जा रही युवक कांग्रेस में अपने कार्यकर्ताओ को गुप्त निर्देश भाजपा के थिंक टैंक आर.एस.एस के दिग्गजों द्वारा देकर उन्हें कांग्रेस में दाखिल होने की हरी झंडी दी गई। परिणाम स्वरूप आर.एस.एस के नवयुवक काली टोपी उतार कर सफ़ेद टोपी धारण कर लाखो की संख्या में दाखिल हो गए। कांग्रेस तो अपने पतन से उदय की ओर चल पड़ी , मगर कांग्रेस के अन्दर छुपे आर.एस.एस के कारसेवक अपना काम करते रहे और इन्हे निर्देश इनके आकाओं से बराबर मिलता रहा । यह काम आर.एस.एस ने इतनी चतुराई से किया की राजनीती चतुर खिलाडी और राजनितिक दुदार्शिता की अचूक सुझबुझ रखने वाली तथा अपने शत्रुवो पर सदैव आक्रामक प्रहार करने वाली इंदिरा गाँधी भी अपने घर के अन्दर छुपे इन भितार्घतियो को पहचान न सकी। इसका एक मुख्य कारण उनका पुत्रमोह भी था परन्तु संजय गाँधी के एक हवाई हादसे में मृत्यु के पश्चात इंदिरा गाँधी ने जब युवक कांग्रेस की सुधि ली और उसके क्रिया कलापों की पर गहरी नजर डाली तो उन्हें इस बात का अनुमान लगा की कही दाल में काला जरूर है । बताते है की इंदिरा गाँधी युवक कांग्रेस की स्क्रीनिंग करने की योजना बनाकर उस पर अमल करने ही वाली थी की उनकी हत्या १९८४ में उन्ही के सुरक्षागार्ङों द्वारा करा दी गई । उसके बाद हिंसा का जो तांडव दिल्ली से लेकर कानपूर व उत्तर प्रदेश के कई नगरो में सिक्ख समुदाय के विरूद्व हुआ उसमें यह साफ़ साबित हो गया की आर.एस.एस अपने मंसुबू पर कितनी कामयाबी के साथ काम कर रही है। राजीव गाँधी ,जो अपने भाई संजय की अकश्मित मौत के पश्चात बेमन से राजनीती में अपनी मान की इच्छा का पालन करने आए थे, जब तक कुछ समझ पाते हजारो सिक्खों की लाशें बिछ चुकी थी करोङो की उनकी संपत्ति या तो स्वाहा की जा चुकी थी या लूटी जा चुकी थी । लोगो ने अपनी आंखों से हिन्दुत्ववादी शक्तियों को कांग्रेसियों के भेष में हिंसा करते देखा , जिन्हें बाकायदा दिशा निर्देश देकर उनके आका संचालित कर रहे थे । सिखों को अपने ही देश में अपने ही उन देशवासियों द्वारा इस प्रकार के सुलुक की उम्मीद कभी न थी क्योंकि सिख समुदाय के बारे में टू इतिहास यह बताता है की उन्होंने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए ही शास्त्र धारण किए थे और विदेशी हमलावरों से लोहा लिया था । देश में जब कभी मुसलमानों के विरूद्व आर.एस.एस द्वारा सांप्रदायिक मानसिकता से उनका नरसंहार किया गया तो सिख समुदाय को मार्शल फोर्स के तौर पर प्रयुक्त भी किया गया ।

राजीव गाँधी ने अपने शांतिपूर्ण एवं शालीन स्वभाव से हिंसा पर नियंत्रण तो कर लिया परन्तु एक समुदाय को लंबे समय के लिए कांग्रेस से दूर करने के अपने मंसूबो को बड़ी ही कामयाबी के साथ आर.एस.एस अंजाम दे चुकी थी । देश में अराजकता का माहौल बनने में अहम् भूमिका निभाने वाले आर.एस.एस के लोगो ने अब अवसर को उचित जान कर उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश व राजस्थान को अपना लक्ष्य बना कर वहां साम्प्रदायिकता का विष घोलना शुरू किया और धीरे-धीरे इन प्रदेशो में मौजूद कांग्रेसी हुकुमतो को धराशाई करना भी शुरू कर दिया।

फिर राजीव गाँधी से एक भूल हो गई वह यह की 1989 में नारायण दत्त तिवारी ने उन्हें यह सलाह दी की हिंदू भावनाओ को ध्यान में रखते हुए अयोध्या से ही लोकसभा चुनाव की मुहीम का गाज किया जाए और भाजपा व विश्व हिंदू परिषद् के हाथ से राम मन्दिर की बागडोर छीन कर मन्दिर का शिलान्याश विवादित परिषर के बहार करा दिया जाए। यह सलाह आर.एस.एस ने अपनी सोची समझी राद्निती के तहत कांग्रेस के अन्दर बैठे अपने कारसेवको के जरिये ही राजीव गाँधी के दिमाग में ङलवाई थी । नतीजा इसका उल्टा हुआ , 1989 के आम लोकसभा चुनाव में कांग्रेस न केवल उत्तर प्रदेश में चारो खाने चित्त हुई बल्कि पूरे उत्तर भारत, मध्य भारत, राजस्थान व गुजरात में उसकी सत्ता डोल गई और भाजपा के हिंदुत्व का शंखनाद पूरे देश में होने लगा । अपने पक्ष में बने माहौल से उत्साहित होकर लाल कृष्ण अडवानी जी सोमनाथ से एक रथ पर सवार होकर हिंदुत्व की अलख पूरे देश में जगाने निकल पड़े। अयोध्या तक तो वह न पहुँच पाये, इससे पहले ही बिहार में उनको गिरफ्तार कर लालू, जो उस समय बिहार के मुख्यमंत्री थे, ने उन्हें एक गेस्ट हाउस में नजरबन्द कर दिया । उधर अडवानी जी की गिरफ्तारी से उत्तेजित हिन्दुत्ववादी शक्तियों ने पूरे देश में महौल गर्म कर साम्प्रदायिकता का जहर खूब बढ़-चढ़ कर घोल डाला , इस कार्य में उन्हें भरपूर समर्थन उत्तर प्रदेश में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के सहाबुद्दीन , इलियाश अहमद आजमी व मौलाना अब्दुल्ला बुखारी जैसे कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं के आग उगलते हुए भासनो से मिला।

क्रमश:
-तारीक खान

चलता हूं दोस्त…देख लेना

हर दिन की तरह बुधवार को भी मैं अपने दफ्तर में रन डाउन की बगल की अपनी सीट पर बैठा था। अचानक पीछे से किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और पीछे से आवाज आई- अच्छा दोस्त चलता हूं, तड़का के दो सेगमेंट निकल गए हैं, बाकि देख लेना। मैं जब तक पीछे मुड़ता तब तक शैलेन्द्र जी हाथ हिलाते हुए न्यूज रूम से बाहर की तरफ चल पड़े थे। तड़का फिल्मी दुनिया पर हमारे चैनल पर चलनेवाला एक शो है जिसे शैलेन्द्र जी प्रोड्यूस करते थे। उस दिन से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि शैलेन्द्र घर जाते वक्त मुझे कहें कि देख लेना। सबकुछ सामान्य ढंग से खत्म हुआ। फाइनल बुलेटिन रोल करने के बाद मैं लगभग एक बजे घर पहुंचा। लगभग ढाई बजे तक रात की पाली के प्रोड्यूसर से सुबह की बुलेटिन की प्लानिंग पर बात होती रही और फिर अखबार आदि पलटने के बाद सो गया।

सुबह साढ़े चार बजे के करीब मोबाइल की घंटी बजी और दफ्तर के एक सहयोगी ने सूचना दी कि नोएडा एक्सप्रेस वे पर शैलेन्द्र जी का एक्सीडेंट हो गया है और वो ग्रेटर नोएडा के शारदा अस्पताल में भर्ती हैं। इस सूचना के बाद दफ्तर में फोन मिलाया तो जानकारी मिली कि रात तकरीबन ढाई बजे शैलेन्द्र जी की गाड़ी की टक्कर ट्रक से हो गई है। टक्कर इतनी जबरदस्त थी कि उनकी कार ड्राइवर की सीट तक ट्रक के नीचे घुस गई थी। राह चलते लोगों ने जब शैलेन्द्र जी को उनकी कार से निकालकर पास के अस्पताल में पहुंचाया तबतक बहुत देर हो चुकी थी और खून इतना बह चुका था कि उनको बचाना नामुमकिन था। सुबह लगभग साढ़े पांच बजे शैलेन्द्र जी ने अंतिम सांसें लीं। शैलेन्द्र जी की मौत से हम सब लोग स्तब्ध थे और किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। अस्पताल में जरूरी कागजी कार्रवाई के बाद शैलेन्द्र जी का शव पोस्टमॉर्टम हाउस पहुंचा। लेकिन पोस्टमॉर्टम हाउस में ताला लटका था और पहले से ही तीन शव वहां पोस्टमॉर्टम के इंतजार में रखे थे।

चूंकि पत्रकारों की पूरी बिरादरी वहां मौजूद थी इसलिए नोएडा पुलिस ने पोस्टमॉर्टम हाउस का ताला तो तोड़ डाला लेकिन अंदर के हालात ऐसे नहीं थे कि शैलेन्द्र जी को वहां लिटाया जा सके। सो तय हुआ कि शव को एंबुलेंस में रखा जाए और डॉक्टर को तलाशने के अलावा अन्य सरकारी कागजी कार्रवाई शुरू की जाए। कुछ लोग डॉक्टर को बुलाने में जुटे, तो एक कांस्टेबल पोस्टमॉर्टम के कागजात पर मुख्य चिकित्सा अधिकारी के दस्तखत करवाने रवाना हुआ। दो घंटे बीत चुके थे। धूप तेज होने लगी थी। जरूरी कागजात पर सरकारी अधिकारियों के दस्तखत लेने गया कांस्टेबल लापता हो चुका था। इंस्पेक्टर विनय राय उसको फोन लगाकर परेशान, लेकिन फोन पहुंच से बाहर। घंटेभर बाद कांस्टेबल नमूदार तो हुआ लेकिन अब कागजात थे लेकिन डॉक्टर नहीं। आधे घंटे बाद डॉक्टर आए और अगले बीस-पच्चीस मिनट में पोस्टमॉर्टम की प्रक्रिया खत्म हो गई। तपती गर्मी में पोस्टमॉर्टम के लिए तीन से चार घंटे का इंतजार। ये हाल उत्तर प्रदेश के सबसे विकसित शहर नोएडा का था तो और शहरों में क्या स्थिति होगी इसकी कल्पना मात्र से रूह कांप जाती है। ये एक ऐसी संवेदनहीन व्यवस्था का बदसूरत चेहरा था जो हर दिन दुखी परिवार को मुंह चिढ़ाता है।

अव्यवस्था का आलम ये कि शव को रखने का कोई इंतजाम नहीं। ना ही साफ-सफाई और ना ही शव को सुरक्षित रखने के कोई उपकरण या फिर बर्फ का ही इंतजाम। संवेदनहीनता इतनी कि डॉक्टर को देर से आने का मलाल नहीं, वो तो पत्रकारों की वजह से थोड़ा जल्दी यानि लगभग घंटेभर पहले पहुंचा था। पोस्टमॉर्टम होने के बाद शैलेन्द्र जी के शव को कैलाश अस्पताल के शवगृह में रखवा दिया गया। तय ये हुआ कि जब उनके रिश्तेदार आ जाएंगे तो शुक्रवार की सुबह निगमबोध घाट पर उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा।

शाम को जब दफ्तर पहुंचा तो वहां अजीब सी मुर्दनी छाई थी। सबके चेहरे पर गहरे अवसाद को साफ तौर पर परलक्षित किया जा सकता था। मैं अपनी सीट पर बैठा था। पीछे से शैलेन्द्र जी की ओबिच्युरी तैयार होने की आवाजें आ रही थीं। जो ये स्टोरी कटवा रहा था उसने बताया कि पैकेज का वॉयस ओवर करने वाले साथी फफक-फफक कर रो रहे थे। दफ्तर में अजीब सा माहौल था। सब एक-दूसरे को देख रहे थे और अपना गम छुपाने की कोशिश भी कर रहे थे। अचानक से मेरे सीनियर मेरे पास आए और मुझसे कहा कि शैलेन्द्र को हेडलाइन में ले लीजिए। ये वाक्य ऐसा था जिसे सुनकर मन अंदर तक कांप गया। कल तो जो हमारे साथ बैठा करते थे आज उनपर हेडलाइन लिखनी पड़ेगी। मन बेचैन था, कंप्यूटर खुला था, पांच बजने में कुछ मिनट रह गए थे, मुझे शैलेन्द्र जी को हेडलाइन में लेना था। घड़ी की सुई बढ़ती जा रही थीं, हाथ को जैसे लकवा मार गया था। नहीं रहे शैलेन्द्र जी – के बाद लिखने के लिए शब्द नहीं सूझ रहे थे।

इस बीच हमारे संपादक आशुतोष मेरे पास आए और मेरा हौसला बढ़ाने लगे। किसी तरह से शैलेन्द्र जी पर हेडलाइन भी लिखी, उनपर बुलेटिन भी प्लान किया और जब पहली बार उनकी ना रहने की खबर बुलेटिन में चली तो पूरे न्यूजरूम में सन्नाटा और उसको चीरती हुई सिसकियां सुनाई दे रही थीं। ये हमारे पेशे की एक ऐसी विडंबना है जिसपर हम सिर्फ रो सकते हैं, रुक नहीं सकते। क्योंकि चाहे जो हो जाए बुलेटिन नहीं रुक सकता।

शुक्रवार को हमलोग उनके अंतिम संस्कार के लिए दिल्ली के निगम बोध घाट पहुंचे। स्नानादि करवा कर जब मंत्रोच्चार के बीच शैलेन्द्र जी के पार्थिव शरीर को चिता पर रखा जा चुका था। मैं किसी काम से ऊपर चला गया था और जब वापस घाट पर लौट रहा था तो देखा दो तीन लोग शैलेन्द्र जी के छह साल के छोटे बेटे को सफेद कुर्ता पायजामा पहनाने और बाल काटने पर आमादा थे। और वो मासूम बच्चा जो अबतक ये नहीं समझ पाया था कि उसको बेहद प्यार करने और उसकी हर ख्वाहिश पूरी करने वाला उसका पापा इस दुनिया से जा चुका है, उसको अपने पिता को मुखाग्नि देने के लिए तैयार किया जा रहा था। और वो कह रहा था कि मैं क्यूं बदलूं कपड़े, मैंने तो अच्छी जींस पहन रखी है, मुझे नहीं पहनना कुर्ता-पायजामा, मुझे नहीं कटवाने अपने बाल। वो रो रहा था और कुछ लोग उसके साथ जबरदस्ती तो कुछ प्यार मनुहार कर रहे थे।

सदमे में मैं नीचे आया और अपने वरिष्ठ सहयोगी प्रबल जी और संजीव को कहा कि उस बच्चे के साथ जो हो रहा है उसको रोकिए। दोनों ने धर्म के नाम पर हो रहे इस कर्मकांड को रोकने की भरसक कोशिश की लेकिन वहां मौजूद एक व्यक्ति ने लगभग चीखते हुए कहा कि हिंदू मायथालॉजी में बेटा इसलिए पैदा किया जाता है कि वो अपने पिता को मुखाग्नि दे सके। विरोध का स्वर भी तीखा था लेकिन समाज के कुछ धर्मभीरू लोग डटे थे। बीच का रास्ता निकाला गया और बच्चे को सिर्फ सफेद कुर्ता पहनाकर चिता का स्पर्श करवा दिया गया।

शैलेन्द्र जी की मौत ने एक बार फिर से धर्म के नाम पर खेल खेलने वालों को बेनकाब किया। हिंदू धर्म और उसके ग्रंथों को व्याख्यायित कर हर रोज धर्म पर कार्यक्रम बनाने वाले शैलेन्द्र जी ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनके प्यारे बेटे के साथ धर्म के नाम पर उनके ही रिश्तेदार संवेदनहीनता की पराकाष्ठा पार कर जाएंगे। शैलेन्द्र जी आपके धर्म का तो ये मतलब नहीं ही रहा होगा। हिंदू धर्म के नाम पर अनपढ़ लोग हमेशा कुछ ऐसा कर गुजरते हैं जिससे धर्म में हमारे जैसे लोगों की आस्था जरा कम हो जाती है। आज जब मैं अपनी उसी सीट पर बैठकर शैलेन्द्र जी के निधन के बहाने संवेदनहीन व्यवस्था और अत्याचारी धार्मिक कर्मकांड पर लिख रहा हूं तो लगता है कि शायद पीछे से फिर शैलेन्द्र जी आकर कंधे पर हाथ रखेंगे और कहेंगे -चलता हूं दोस्त, देख लेना।

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लो क सं घ र्ष !: छाया पड़ती हो विधु पर…


खुले अधर थे शांत नयन,
तर्जनी टिकी थी चिवु पर।
ज्यों प्रेम जलधि में चिन्मय,
छाया पड़ती हो विधु पर॥

है रीती निराली इनकी ,
जाने किस पर आ जाए।
है उचित , कहाँ अनुचित है?
आँखें न भेद कर पाये॥

अधखुले नयन थे ऐसे,
प्रात: नीरज हो जैसे।
चितवन के पर उड़ते हो,
पर भ्रमर बंधा हो जैसे॥

-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल “राही”