अभिलेख

संपादकीयः दोमुंहे देशों की जोड़ी लड़ेगी तालिबान से?

तालिबान के साथ घमासान में पाक फौज को मिल रही सफलता पर अमेरिका इतरा रहा है। तालिबान अमेरिका के दुश्मन हैं जिसके खात्मे में उसके जवान शहीद नहीं हो रहे। यह लड़ाई पाकिस्तान अमेरिकी पैसों से लड़ रहा है। तालिबान पाक के भी दुश्मन हैं और धमाकों से परेशान पाक जनता भी अब यह समझ रही है। भारत भी खुश है कि पाकिस्तान आखिरकार तालिबान पर कार्रवाई कर रहा है। अफसोस ख़ुशी के ये दिन लंबे नहीं चलेंगे। कारण कि इस लड़ाई में सैद्धांतिक कमजोरी है।
भूलना नहीं चाहिए कि जब तालिबान की कोपलें फूटीं, तब इसी खून से उसे सींचा गया था। वह मूर्त संगठन नहीं, एक सोच है जो विस्थापित अफगान पश्तूनों के बीच पनपी। उन पाक मदरसों में जो वहाबी संप्रदाय के पैसों से चलते थे। तब जमीन से बेदखल ये पश्तून शरणार्थी शिविरों में रह रहे थे। यहां मजहबी विचारधारा और पाक व अमेरिका द्वारा दी गई कलाश्निकोवों से लैस हुए और खून का बदला खून से लेकर काबुल में बैठ गए।
पर बुरा हो खून के लज्जत की लत का। कब्जे में आने के बाद अफगानिस्तान मैदान नहीं रहा। लादेन ने फतह के लिए नई धरती दिखलाई। अमेरिकी सरजमीं पर अलकायदा के हमले के बाद से अमेरिका तालिबान का दुश्मन है। पाकिस्तान अमेरिका के साथ है इसलिए तालिबान उसे भी नहीं बख्शते।
आज फिर दस लाख से ऊपर बेघर शरणार्थी शिविरों में हैं। ये अफगान नहीं, पाक पश्तून हैं। गैरसरकारी संगठनों के वेश में आतंक के सौदागर इन शिविरों को चलाते हैं। पश्चिम की बुराइयां और विरोध मासूम बच्चों के जेहन में भरते हैं। भारत, योरप, अमेरिका व इसरायल को इस्लाम का दुश्मन बताते हैं।
ये शिविर आतंक की फैक्टरी बन जाते हैं। आज पाक में मर रहे तालिबान सरकारी फाइलों व अखबारों में महज आंकड़े बनकर रह जाएंगे। पाक सरकार अमेरिका से इन आंकड़ों के बदले अरबों वसूलेगी। तब तक मदरसों से तालिबान की नई फौज निकलेगी और हिंसा का सिलसिला चलता रहेगा।
अमेरिका पश्तून समस्या को समझने की दूरदर्शिता दिखाता तो इस जंग का फाइनेंसर नहीं बनता। ओबामा के आने पर लगा था कि अमेरिका आतंक के व्यवसाय को समझेगा। पर भारत के खिलाफ आतंक को बढ़ावा देने वाले देश पर डॉलरों की बौछार जारी है। ऐसे दोमुंहे राष्ट्रों की जोड़ी क्या लड़ पाएगी कट्टर तालिबान से। तालिबान में सैद्धांतिक समता तो है, जबकि अमेरिका और पाक का गठबंधन तो मौकापरस्त और व्यावसायिक है।

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बच्चों पर भारी कश की लत


भोपाल. सिगरेट के कश लेने में अब बच्चे भी पीछे नहीं हैं। 80 फीसदी बच्चे 18 साल की उम्र पूरी होने के पहले सिगरेट पीना शुरू कर देते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार बच्चों में सिगरेट पीने की प्रवृत्ति उनके अभिभावकों की आदतों से पनपती है।
मनोचिकित्सकों के मुताबिक जिन बच्चों के परिवार में खुलेआम सिगरेट पीने, तंबाकू खाने का चलन है उन परिवारों के बच्चों के दिमाग का विकास सही तरीके से नहीं हो पाता। इसके चलते बच्चे अपने अभिभावकों की प्रत्येक अच्छी और बुरी आदत जल्द ही अपना लेते हैं। अभिभावकों की यही स्मोकिंग की आदत बच्चे को सिगरेट पीना सिखा देती है।
शहर में पहचाने गए कैंसर रोगियों में कम उम्र में सिगरेट का नशा करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। डॉक्टरों के अनुसार कम उम्र में सिगरेट, तंबाकू का शौक करने वाले बच्चों को मुंह का कैंसर, गले का कैंसर जल्दी हो जाता है।

पापा का घर में सिगरेट पीना लगता है बुरा
शक्ति नगर निवासी मुकेश श्रीवास्तव के 14 वर्षीय पुत्र आयुष को पापा का घर में सिगरेट पीना बुरा लगता है। आयुष ने बताया कि पापा जब भी सिगरेट पीते हैं तो मैं उनसे नाराज हो जाता हूं। शिकायत करने पर पापा छुपकर सिगरेट पीने लगे हैं।

रोल मॉडल है, पर सिगरेट से तौबा
मौलाना आजाद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के एमटेक के छात्र शरद कुमार, अभिनेता नाना पाटेकर को अपना रोल मॉडल मानते हैं। शरद ने बताया कि रोल मॉडल होने के बाद भी मुझे उनका सिगरेट पीना गलत लगता है। अभिनेताओं को फिल्मों में इस प्रकार के रोल नहीं करना चाहिए।

पीना नहीं सीखा
भोपाल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के बीई फाइनल के छात्र बृजेश गुप्ता को शूटआउट लोखंडवाला में माया की भूमिका में दिखे विवेक ओबेराय पंसद हैं। फिल्म में विवेक के कई स्मोकिंग दृश्य हैं। बृजेश का कहना है कि फिल्म देखकर बहुत कुछ सीखा, लेकिन सिगरेट पीना नहीं।

नशीले पदार्र्थो दृश्यों पर चले कैंची
मेडिकल प्रोफेशनल राहुल श्रीवास्तव को अमिताभ बच्चन की फिल्में पसंद हैं, लेकिन उनकी फिल्मों में सिगरेट पीने के सीन खराब लगते हैं। राहुल का कहना है कि फिल्मों के सीन बच्चों के दिमाग पर सीधे असर डालते हैं और वह स्मोकिंग सीखते हैं। इसलिए ऐसे दृश्यों पर कैंची चलनी चाहिए।

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टयूबवैलों के भरोसे विश्व प्राकृतिक धरोहर – घना पक्षी विहार


राजीव शर्मा,भरतपुर

जल ही जीवन है,जल है तो कल है, जैसी बातें दिनों दिन अब आम आदमी के सामने यक्ष प्रश्न बन कर सामने आ रही है । गर्मी के दिनों में इसकी किल्लत के चलते इंसान तो चक्का जाम , मटका फोड प्रदर्शन कर प्रशासन के सामने अपनी मॉग को पूरी करने के लिए मशक्कत करता दिखाई पड रहा है ।मगर जल केवल इंसानों के लिए ही जीवन नहीं है और इसके न होने से इंसानों का ही कल असुरक्षित होगा ऐसा भी नहीं है। इसका उतना ही संबंध जल के जीवों , आसमान के परिंदों के साथ जंगली जानवरों के लिए भी है ,जो किसी के पास जाकर अपनी मॉग नहीं रख सकते तो क्या इंसान इतना मतलबी हो गया है कि वो प्रकृति के इन अनुपम उपहारों की चिंता ही करना छोडता चला जा रहा है या फिर उसने, इनके लिए पानी की व्यवस्था को भी अपनी राजनीति की एक सीढी मात्र बना लिया है।इतना ही नहीं आम आदमी ने भी अपने घर के आस पास के पेडों पर हमेशा की तरह पानी के परींडे लगाना बंद कर दिया है जिनसे पक्षी अपनी प्यास बुझा लिया करते थे।

राजस्थान को अन्रर्तराश्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने वाला केवलादेव घना पक्षी विहार अब अपने अस्तित्व के लिए संधर्ष करता नजर आ रहा है इसके पीछे का कारण है पानी, जिस पर होने वाली राजनीति ने पक्षियों का स्वर्ग कही जाने वाली इस प्राकृतिक संपदा के समक्ष गम्भीर संकट खडा कर दिया है ।जिसके लिए अब टयूबवैलों का सहारा लिया जा रहा है ।क्या हजारों पक्षियों ,जंगली और पानी के जीवों के आश्रय बने इस विशाल क्षेत्र को ऐसे अल्प संसाधनों से पुर्नजीवन दिया जा सकता हैं।किसी समय पर 400 पक्षी प्रजातियों को आशियाना देने वाले इस पक्षी विहार में आज बमुश्किल 50 प्रजाति ही दिखाई पडती है जिनमें अधिकांश देशी ही है। ।इस अभ्यारण्य में इस समय लगभग पॉच हजार पक्षी है जिनमें ईंग्रेट,बुड पैकर,ग्रीन पीजन,पैराकीट,उल्लू,हार्नबिल,किंग फिशर,जैकाना,सनवर्ड,ब्लैक नेक स्टार्कं,इंडियन सारस प्रमुख है।इनमें जलकौवे,सारस,लकबक बगुले,जलसिघे और कछुऐ जो जल के जीव है के लिए परेशानियॉ कहीं बहुत अधिक बढ गई हैं। सभी झीलों का पानी लगभग सूख चुका है जमीन में दरारें दिखाई देने लग गई है ऐसे में केवल मानसून की अच्छी बारिश से ही उम्मीद की जा रही है।

इस पक्षी विहार की पहचान साईबेरिया से चलकर आने वाले सारसों के कारण थी जो अब बशोZ से यहॉ नही आ रहे है ।बर्ष 2002 से इन पक्षियों ने यहॉ आना बंद क्या किया, पक्षी विहार के लिए अपशकुन के दिन आरम्भ हो गये, और फिर 2004 से इन्द्र देवता ने भी अपना कोप भाजन इस क्षेत्र को बना लिया जिसके चलते पानी का एक गम्भीर संकट यहॉ खडा हो गया है।

आज घने को तकनीकी रूप से दुनिया के सामने रखने के लिए वेब की दुनिया से जोडे जाने की तैयारिया तो चल रहीं है मगर उसको बचाने के लिए आवश्यक पानी की व्यवस्था करने हेतू स्थायी और सार्थक प्रयास कहीं होते नजर नहीं आ रहे है।आम तौर पर घने को मई जून के महीनों में बंद कर दिया जाता रहा है मगर इस बार कुछ तथाकथित घना प्रेमियों ने धरने प्रदर्शनों की नौटंकी कर उसे इन दिनों में भी खुला रखने के सरकारी आदेश मिलने के बाद खुशी के इजहार करते अपने फोटो छपवा लिऐ है मगर पानी की समस्या को लेकर कोई सुगबुगाहट कहीं दिखाई दी हो ऐसा नहीं है।

घने की झीलों के लिए पर्याप्त पानी की व्यवस्था गम्भीर नदी से होती रही है, जिसे रोककर करौली जिले में पॉच नदियों का संगम कर पॉचना बॉध बना दिया गया ,उसके बाद इस पक्षी विहार के लिए पानी का संकट खडा हो गया ।पॉचना से चलकर भरतपुर पहुंचने वाले पानी पर राजनीति की ऐसी काली छाया पडी की इस राश्ट्रीय धरोहर के अस्तित्व पर ही संकट खडा होने जा रहा है क्योंकि पानी के बिना प्रकृति और पक्षी अपने जीवन के लिए संघर्ष करते हुए यहॉ बहुत दिनों तक बने रहेगें इस बात की उम्मीद कम ही की जा सकती है ।दूसरी ओर यहॉ पर्यटकों के लिए भी स्तरीय सुविधाओं का अभाव दिखाई देता है ।

कभी देशी विदेशी पक्षियों के मधुर कलरव से गुंजायमान रहने वाले इस पक्षी अभ्यारण्य की स्थिति अब धीरे धीरे बदतर होती चली जा रही है राजनीति के धुरंधर चुनावों के वक्त भले ही भरतपुर को पानी दिलाने की बात कहते हो मगर उसमें भी इस पक्षी विहार की कहीं कोई चर्चा सुनाई नही देती है ।आम आदमी की उदासीनता राजनेताओं से कही अधिक है वो भी नहीं चाहते कि इस पहचान के साथ जिले और प्रदेश का नाम जुडा रहे, उनका मानना है कि जब भरतपुर से बडे बडे उधोग धन्धे और कम्पनियॉ रूखसत कर गई तो इस पहचान के साथ जुडे रहने से क्या होना है ।

अब जबकि प्रदेश और केन्द्र में कांग्रेस की सरकार है और बहुत दिनों बाद कांग्रेस प्रत्याशी भरतपुर से जीत कर संसद पहुंचा है ,जो जलदाय विभाग के उच्च पद से ही सेवानिवृत है तथा जिसका संबंध भरतपुर को चंबल का पानी पहुंचाने के लिए गत कांग्रेस सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना से रहा है । अब इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि इस अभ्यारण्य के लिए पानी की स्थायी व्यवस्था के साथ इसकी बेहतरी के लिए कुछ किया जा सकेगा।इस संदर्भ में एक और बात महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस के युवराज राहुल गॉधी चुनाव प्रचार के दौरान भरतपुर आने पर अपनी पुरानी यादों को ताजा करते हुए सर्दियों में एक बार फिर से घना घूमने का वायदा कर गऐ है लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह हो जाती है कि आज 6 टयूबैलों के भरोसे खडी ये अनमोल धरोहर और इसकी अमानत शोरगुल करते सुन्दर विहग तब तक यहॉ रूक पाऐगें या फिर अपने लिए और किसी बेहतर आशियाने की तलाश में यहॉ से दूर कहीं के लिए उडान भर जाऐगें ।आज भरतपुर जिले के कस्बों और गॉवों में रोजाना पीने के पानी के लिए सड़कों पर खुले आम प्रदर्शन हो रहे है मगर प्रकृति के सुन्दर उपहार कहे जाने वाले इन मूक पक्षियों और जानवरों के लिए कहीं से कोई आवाज उठती नजर नहीं आ रहीं है ये मानवीय संवेदनाओं के सिकुडते स्वरूप को साकार करती कहानी है जिसकी इबारत इस पक्षी विहार के लिए आने वाले दिनों का अच्छा संकेत नहीं दे रही हैं।

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पानी की कमी –एक छप्पय -छंद

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छप्पय
आयेगी वह सदी जब , जल कारण हों युद्ध ,
सदियों पहले भी हुए , जल के कारण युद्ध
उन्नत मानव हुआ ,प्रकृति -सह भाव बनाया ,
कुए ,बावडी ,ताल बने ,जन मन हरषाया ।
निज हित में जो नाश प्रकृति का मनुज करता नहीं ,
जल कारण फ़िर युद्ध !यह बात सोच सकता कहीं ॥