अभिलेख

हिंदू-मुस्लिम : दूध-पानी – आचार्य संजीव ‘सलिल’

कंकर-कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान माननेवाले क्या यह बताएँगे कि किसी अहिंदू की आत्मा परमात्मा का अंश नहीं है, यह कहाँ लिखा है?
हर जड़-चेतन में बसनेवाला तो हर मुस्लिम और ईसाई, हर हरिजन और आदिवासी में भी है. जिस दिन हम इन्सान को इन्सान के तौर पर देखेंगे, उसे अच्छे-बुरे के रूप में पहचानेंगे उस दिन धर्म और मजहब के ठेकेदारों द्वारा खड़ी की गयी दीवारें गिर जायेंगी. इसके लिए हमें किसी एक धर्म को दूसरे से बेहतर या बदतर मानने के चक्रव्यूह से बाहर निकलना होगा. जब हम अपने विश्वास को किसी भी आधार पर सही और अन्य के विश्वास को गलत कहते हैं तो प्रतिक्रिया के रूप में असहमति, दूरी, गलतफहमी और नफरत पैदा होती है. इससे उपजा अविश्वास अच्छे लोगों को कमजोर कर आपस में लड़ाता है, जिसके फायदा वे लोग उठाते हैं जो धर्म, मजहब या रिलीजन के नाम पर पेट पालते हैं.
संजय जी! आप जिनकी चर्चा कर रहे हैं, वे मुल्क के प्रति वफादार होने के साथ-साथ समझदार भी थे, उनहोंने अपने मजहब का ईमानदारी से पालन किया पर कभी उसे दूसरे धर्मों से बेहतर या एकमात्र नहीं कहा. वे अपने मजहब की जितनी इज्ज़त करते थे उतनी ही अन्य धर्मों की भी. कृपया, किसी भी एक धर्म विशेष को दूसरे धर्मों से कम या ज्यादा अच्छा कहनेवाली विचारधारा को हतोत्साहित तथा हर धर्म/मजहब के अच्छे लोगों को बढ़ाने और बुरे लोगों को बदलने की विचारधारा को मजबूत करने का प्रयास .
जब तक अच्छा हिन्दू और अच्छा मुस्लमान दो जिस्म एक जान नहीं होंगे तब तक बुरे मुस्लिम और बुरे हिन्दू हावी होकर हमें बाँटते और तोड़ते रहेंगे. जहाँ हिंदू-मुस्लिम दूध-पानी की तरह घुल-मिल जायेंगे वहाँ सत्य की जीत .
हिन्दुओं में कठमुल्लों को उतना हावी नहीं होने दिया गया जितना वे पाकिस्तान में हो गए हैं. कश्मीर के ब्राम्हणों को बुरे मुसलमानों ने मारा-भगाया और अच्छे मुस्लमान मौन रहे. यह न हो अच्छा-अच्छे का साथ दे तो भ्रम ख़त्म हो जाये. जिन घरों में हिंदू-मुस्लमान पति-पत्नी बिना धर्म बदले रहते हैं वहाँ बच्चों को दोनों धर्मों में भरोसा होता है वहाँ किसे एक को सच्छा मानने और अन्य को कमतर मानने का सवाल ही नहीं उठता. शायद यही एक मात्र इलाज है इस समस्या का.
मुस्लमान इस्लाम को सर्वश्रेष्ठ बताकर अन्य धर्मों को नीचा कहकर उनके अनुयायियों को इस्लाम अपनाने के लिए मजबूर करने की कोशिश न करें तो आपसी सौहार्द्र बन सकेगा. धर्म बदलने के आरोप सिर्फ़ मुसलमानों व ईसाइयों पर क्यों लगते हैं? क्या कभी किसी को पारसी, बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि पर यह आरोप लगाते पाया है?
असलियत में धर्म को अपनाना निजी विश्वास की बात है इसे सामाजिक या सामूहिक बनाया जाता है तो झगडे खडे होते हैं जिससे धर्म के ठेकेदार फायदा उठाते हैं फतवे के नाम पर पूरे समाज को किसी एक धर्माचार्य की बात मानने को मजबूर करने की प्रथा को न मानने के कारण हिन्दू अपने निर्णय ख़ुद कर पता है जबकि मुस्लमान को अपना आचरण तय करने के पहले दूसरों की और देखना पड़ता है।
जब भी आतंक फैलानेवाले आते है जिहाद के नाम पर फतवा उनकी तरफ़ होता है और शरीफ सज्जन समझदार मुस्लमान सहमत हो न हो उसे सर झुककर साथ देना या चुप रहना होता है। इस व्यवस्था को बदले बिना स्वात घाटी जैसे घटना क्रम को रोका नहीं जा सकेगा। इसी कारण आम मुस्लमान उस शको-शुबह को आरोपी बनता है जिसका दोषी धर्माचार्य होता है। जब तक यह बदलाव न हो समझदार लोगों को एक जमात की तरह ख़ुद को जोड़े रखकर, मज़बूत बनाना होगा। यह तभी होगा जब शादी मजहब नहीं विचारों और गुणों, पसंदगी और नापसंदगी के आधार पर हो। एक परिवार के चार सदस्य चार धर्मों के हों तो भी साथ हिल-मिल कर रहें।
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