अभिलेख

‘समर्थन’ और ‘विरोध’ का सीरियल

श्रवण गर्ग Sunday, July 05, 2009

सरकारों द्वारा की जाने वाली घोषणाओं को लेकर विपक्षी दलों की प्रतिक्रियाएं स्टाक माल की तरह तैयार रहती हैं। आम जनता को भी पूरा आभास रहता है कि पक्ष और विपक्ष के ऊंट किस करवट बैठने वाले हैं।

ममता बनर्जी द्वारा शुक्रवार को लोकसभा में पेश किए गए रेल बजट को अगर विपक्षी दलों ने सतही, निराशाजनक और परिकथाओं वाला और कांग्रेसी खेमों ने प्रगतिशील, शानदार और व्यापक समझ वाला निरूपित किया तो इस पर बहुत ज्यादा आश्चर्य व्यक्त नहीं किया जाना चाहिए।

कल (सोमवार) को वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी द्वारा पेश किए जाने वाले वर्ष 2009-10 के बजट को लेकर भी कुछ इसी तरह की प्रतिक्रियाओं का इंतजार किया जा सकता है। यूपीए की सरकार पांच वर्षो तक सत्ता में रहने वाली है और हर साल ऐसे ही बजट पेश होंगे और फिर ऐसी ही प्रतिक्रियाएं देखने-पढ़ने को मिलेंगी। जो लोग सरकार में होते हैं वे अपनी हर घोषणा को आम जनता के हित में और विकासोन्मुखी बताते हैं और जो विपक्ष मंे होते हैं ठीक उसके विपरीत।

प्रतिक्रियाओं का यह अंतहीन सीरियल पहले आम चुनाव के बाद से ही लगातार चल रहा है। यही विपक्ष जब सत्ता में आ जाता है तो सबकुछ अच्छा हो जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेलमंत्री के रूप में जब ममता बनर्जी ने अपना रेल बजट पेश किया था तब जो लोग आज सत्ता में हैं, विपक्ष में बैठते थे और ममता के प्रस्तावों को लेकर उनकी ओर से कोई जय-जयकार नहीं की गई थी। पर ऐसा केवल भारत में ही नहीं होता और न ही केवल संसद तक सीमित है।

विधानसभाओं, नगरीय निकायों और पंचायतों तक ऐसे ही हालात हैं। दुनिया के सर्वाधिक विकसित और अति-संपन्न देशों में भी सत्तारूढ़ दलों और विपक्ष के बीच रिश्ते ऐसे ही हैं। घोर आर्थिक मंदी में फंसे अमेरिका को संकट से उबारने के लिए जब इसी साल फरवरी में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 37,776 अरब रुपए का पैकेज प्रस्तुत किया तो उसका विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी ने यह महसूस करते हुए भी विरोध किया कि देश को ऐसी आर्थिक खुराक की तुरंत जरूरत है।

जब प्रतिनिधि सभा में आर्थिक प्रस्ताव को मंजूरी के लिए रखा गया तो रिपब्लिकन पार्टी का तो एक भी वोट ओबामा के समर्थन में नहीं ही पड़ा, राष्ट्रपति की खुद की डेमोक्रेटिक पार्टी के भी 11 सदस्यों ने पैकेज के विरोध में मतदान किया।

पैकेज पारित हो गया और अमेरिका आर्थिक संकट से उबरने की स्थिति में भी आ गया। भारत के शेयर बाजार में संस्थागत विदेशी पूंजी निवेश की जो अनुकूल परिस्थितियां आज निर्मित हो रही हैं उसका बहुत कुछ संबंध अमेरिका की आर्थिक तबीयत में होने वाले सुधार से भी है।

सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही खेमों में ऐसी राजनीतिक उदारता का वातावरण बनना अभी बाकी है कि देश के समग्र विकास की अवधारणा को तरजीह देते हुए मुद्दों के महत्व के आधार पर ही समर्थन और विरोध की मुद्रा अख्तियार की जाए। सैद्धांतिक रूप से अगर नीतियों में ही खोट नजर आती है तो सत्ता पक्ष के सदस्यों को भी विरोध करने की आजादी हो।

घोषणाओं के ‘परिकथाओं’ की तरह होने पर भी अगर उनमें आम आदमी का कुछ भला होने की थोड़ी सी भी गुंजाइश दिखती हो तो विपक्ष को भी साहस दिखाना चाहिए कि वह समर्थन में हाथ आगे बढ़ाए। ओबामा के पैकेज का प्रतिनिधि सभा में राष्ट्रपति के दल के ही ग्यारह सदस्यों ने विरोध किया पर जब उसे सीनेट में मंजूरी के लिए रखा गया तो रिपब्लिकन पार्टी के तीन सदस्यों व दो निर्दलीयों ने पक्ष में मतदान किया।

देश जब भी असाधारण परिस्थितियों में घिरा होता है, जैसे कि किसी अन्य राष्ट्र से युद्ध अथवा कोई राष्ट्रीय आपदा, सारे के सारे राजनीतिक दल, समस्त विचारधाराएं अपने-अपने आग्रहों-पूर्वाग्रहों को तकियों के नीचे सरकाकर एक हो जाते हैं। आम नागरिक में भी तब सैनिकों के गुण यकायक प्रकट हो जाते हैं।

चारों ओर एक तरह का सामूहिक सहमति का सन्नाटा छा जाता है। पर इस तरह की परिस्थितियां न तो हमेशा बनती हैं और न ही उनके बनने की ईश्वर से प्रार्थनाएं ही की जा सकती हैं। तकाजा इस बात का अवश्य किया जा सकता है कि सामान्य परिस्थितियों में भी आम आदमी की बेहतरी और विकास के मुद्दों पर पक्ष और विपक्ष के बीच व्यापक सहमति का कोई आधार खड़ा हो सकता है अथवा नहीं।

एक ऐसे कालखंड में जिसमें कि अपना सबकुछ त्यागकर एक ही ईश्वर की आराधना में लगे हुए संतों ने भी अपने भक्तों को संख्या की ताक त के आधार पर आपस में बांट रखा हो और मठों पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए संघर्ष से भी परहेज नहीं करते हों, केवल सत्ता की राजनीति में ही जीवन खपा देने वाले राजनेताओं से इस तरह की उम्मीदें बांधने को जान-बूझकर निराशा आमंत्रित करने का प्रयास भी करार दिया जा सकता है। पर कवि दुष्यंत कुमार को याद किया जाए तो, एक पत्थर को तबीयत से उछालने में कोई हर्ज भी नहीं। आसमान में सुराख हो पाएगा कि नहीं, उसकी ज्यादा चिंता नहीं पालनी चाहिए।

– लेखक भास्कर के समूह संपादक हैं।

भास्कर से साभार प्रकाशित

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कनिष्क कश्यप: क्यों उठ रहे मेरे ब्लॉग पर सवाल ?

मैंने जैसे हीं अपने ब्लॉग को एक सार्वजनिक स्वरुप दिया , मेरे अन्य मित्रवत व्यवहार करने वालो ने मेरे नक्से कदम पे चलते हुए , वही किया जो मैंने ! परन्तु मेरी और उंगली उठाने से बाज़ नही आए। उनका मानना है कि मैं अपने उद्देश्य को तो कुछ और बता रखा है , और ब्लॉग पर छप कुछ और रहा । मैं पूछता हूँ की अपनी शादी की सी डी बना कर , स्वयं को मुख्य किरदार निभाते हुए देखना , बहुत सुखदायक तो नही , पर अच्छा अवश्य लगता है। स्वयं को नायक की तरह , कैमरे के फोकस में देखना एक पल के लिए सुभाष घई की याद तो दिला हीं देता है।। अ़ब आपने गाँव में होली गाते तो देखा हीं होगा …. एक व्यक्ति पंक्तिओं को गाता हैं और पीछे -पीछे सब उसी को ढोलक और झाल की थाप पर दुहराते हैं। कोई मतभेद नही होता , कोई अलग सुर में नही गाता ..सब एक की सुनते हैं और गाते हैं ।मेरे (उस मित्र )मित्रों ने अपने ब्लॉग का उद्देश्य तो अवश्य बताया , पर उसका अर्थ ख़ुद नही समझ पाए … उनके शब्दों में“दरअसल हमारा उद्देश्य है ” भारतवर्ष में समसामयिक राजनैतिक और सामाजिक मुद्दों पर सही वैचारिक दृष्टिकोण , जिसे हम भारतीय नजरिया भी कहते हैं , प्रस्तुत करना । “तो वो सिर्फ़ नज़रिया ही प्रस्तुत करेंगे । सिर्फ़ बातें हीं होंगी , जो गत साठ सालों से होती आ रही ही। हम किसी चर्चा के हिमायती नहं है । हम मनसा ,वाचा से ऊपर उठकर कर्मणा की बात कर रहे हैं । और कर्मणा को मै किसी भी कठमुल्लेपन से नही बंधना चाहता । बाज़ार के खिलाफ इस निर्णायक लडाई में हम कृष्ण के सामान , किसी भी हठधर्मिता से बचते हुए शस्त्र प्रयोग से बाज़ नही आएंगे । और जब आवश्यकता पड़ेगी तो बाज़ार के औजारों को उसी के खिलाफ इस्तेमाल करने से भी नही हिचकेंगे। मैं किसी हीरोइज़्म इन नेशनलिज़्म का प्रखर विरोधी हूँ । उम्मीद ही की मेरे मित्र और आप सभी , इस बात को समझ गयें होंगे । साम , दान , दंड , भेद … और सभी की क्षमताओं का यथास्थान सदुपुयोग करके हीं , नए महाभारत का निर्माण हो सकता ही ।हमें पता होना चाहिए की युधिष्ठिर को झूठ कहाँ बोलना है ?
जय हिंद । जय स्वराज

हाँ तो भाई साहब …ब्राहमणवाद को पहचानिये …

टिप्पणी पे की गयी टिपण्णी , पर टिप्पणी ……………………………

आपका कहना लाज़मी है ..मैंने तो पहले हीं ज़िक्र कर दिया की सवाल अगर ब्राह्मणों ने खड़ा किया , या ऐसी मानसिकता ने , तो ज़वाब भी तो वहीँ बने।
जहाँ तक बात है साँप की दूध पीने की , तो वह सत्य है सभी के लिए ….. साँप ब्राह्मणों के घर में हीं दूध नही पीते
पता नही आप किस आधार पर गाँधी की हत्या , इंदिरा और राजीव की हत्या ब्राह्मण्वादि सोच का प्रतिफल मानते हैं। अगर सच में ऐसा है तो आपका विश्लेषण जग जाहिर होना चाहिए। मुझे तो लगता है की , गाँधी की हत्या कर गाँधी को महान बना दिया गया वरना उनके काबिलियत पे संदेह बरक़रार रह जाता

गाँधी तो स्वयं , हार चुके थे , उस निहत्थे बुढे गाँधी पे गोली खर्च करने की क्या आवश्यकता थी उनकी सजा उनकी ज़िन्दगी थी गाँधी हमेशा हीं अंग्रेजियत के दुश्मन थे अंग्रेजों के नहीं , और इसके पलट में नेहरू अंग्रेजों के दुश्मन थे , अंग्रेजि़त के नहीं इतना हीं फर्क गाँधी और नेहरू को पास भी रखा और बहुत दूर भी आज जब भारतीय शिक्षाविद् उन्हें राष्ट्र पिता कहतें हैं , ये भी बात पल्ले नही पड़ती। राष्ट्र का कोई पिता भी हो सकता है , यानि राष्ट्र व्यक्ति से बड़ा नही ?
मुझे तोहिंदुत्वका रथ और हिंदू का मतलब समझाना पड़ेगा ! वह जो भी व्यक्ति जो भारत को अपनी पुण्यभूमि और कर्मभूमि मानता है , वह हिंदू है , और जो संस्कृति यहाँ , इस भूमि पर उपजी , वही संस्कृति में विस्वास हिंदुत्व में विश्वास करना है ! मुझे नहीं लगता की बीजेपी इस से अलग कुछ बात करती है

यह तो आप जैसे मानवतावादियों का बनाया गया भ्रम जाल है जो, मुस्लिम और अन्य निचले वर्णों को यह भय दिखाकर की, भाई साहब भाजपा से दूर रहियो , जायेगी तो गोधरा मच जाएगा , या रामराज्य जाएगा ……बताकर बेवकूफ बना रहे हैं यह कैसा प्यार है , की बच्चा भूखा रो रहा है , और माँ अपने पायल पे पोलिश लगा रही है शायद आपके कहे अनुसार तो , कांग्रेस ऐसी हीं माँ लगती है. आपकी बातों में सिर्फ़ दोषारोपण है , तथ्य और तर्क की कोई झलक देखने को नही मिलता !
उम्मीद है आगे आप तथ्यों का सहारा लेंगे , बेबुनियाद आरोपों का नहीं

ब्राह्मण्वादि होना तो जीने की अदा है, तबियत हो तो अपना लीजिये


सुमन जी के लेखआजाद भारत में ब्राहमणवाद का कफसपढ़ा। लेख को लेकर काफी प्रतिक्रिया हुई और यह एक गंभीर चर्चा का विषय बन गयाऐसा कह कर मैं इस मुद्दे को वो तवज्जो नही देना चाहता।
पहले मैं सुमन जी से ये कहना चाहता हूँ की , अछे और बुरे का होना ,किसी जाती, धर्मं या संप्रदाय की बपौती नही है। पर इस बात को कुछ हद तक स्वीकार जा सकता है की मानवीय गुण और धर्म संस्कार से प्रभावित अवश्य होते हैं
अब जो जिस लायक है , उसे उसका अधिकार तो मिलना चाहिए पूजा सूर्य की होती है , सितारों की नही ! पूजी तुलसी जाती है , बनोल नही ! कहने का तात्पर्य ये है की , गुणऔर गुणी सर्वदा पूजनीय होतें हैं।

इससे पहले की आगे की बात की जाए , सुमन जी के लेख पर नज़र डालें
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/2009/05/loksangharsha-1.html

पहले मैंब्राहमणशब्द के साथ किसीवादजैसी निकृष्ट शब्दावली के प्रयोग का पक्षधर नही हूँ वादकभी भी सिमित होता है , कुछ बुनियादी अवधारणाओं पर , जोंको सत्य या केन्द्र में रखकर , देश कल और परिस्थिति के अनुससार कुछ सूत्र और लक्ष्य पिरोये जाते हैं।ब्रह्माको जानने का क्रम किसी वाद से निरुपित नही हो सकता मैं ये नही कहता की ब्राह्मणों को ब्रह्म की समझ है , परन्तु नस्ल भी कोई चीज़ होती है क्या सारे घोडे एक हीं काबिलियत के होंगे , गर उन्हें एक हीं परिवेश में रखा जाए क्या सरे गहुँ के बिज़ की पैदावार एक सी होगी अगर उन्हें एकसमान माहौल में बोया जाए ? नहीं! क्यों कीआपके ४० पुश्तों के संस्कार अपमे विधमान हैं।
मैं नही कहता की मैं सुमन जी को कोई जवाब दे रहा हूँ ..परन्तु उनकी ब्राह्मणों के प्रति जो समझ है ..उसकी और एक इशारा जरुर है ….
ब्राहमण , एक जीवन शैली है जहाँ ब्रह्म को जानना यानि ज्ञान का उपार्जन और ज्ञान को समान्य जन की हित में उपयोग करना ,उन्हें शिक्षित करना , इसका ध्येय है क्या आपको नही लगता की कोईनिम्नजाती का व्यक्ति अगर , किसी अच्छे पद या ओहदे को प्राप्त कर लेता है , तो अपने मन से उसनिम्नवाले सोच को त्याग कर , उसे भुला कर भ्रह्मनो सा व्यवहार करने की चेष्टा करता है वह तब स्वयं को निम्न नही समझता।
रक्त सुचिता , और जाती सुचिता का मर्म जाने बगैर किसी बात को कहना नादानी और महज ट्राल्लिंग भर है।

आज मायावती भले हीं , दलित होकर मुख्य मंत्री के पद पर आसीन हो गयीं , पर क्या राजपाट चलाने के लिए
उन्हें ब्राहमणों या सवर्णों की आवस्यकता नही पड़ी ? उधर ओबामा भले हीं राष्ट्रपति हो , परन्तु उनके विश्वस्पात्रो में
कितने अश्वेत हैं ? चुनाव प्रचार में गरीब और हाशियाग्रस्त समुदाय की बात करने के बाद ओबामा और मायावती , दोनों को क्यूँ अपनी नस्ल नही भाति ?

भारतीय अस्मिता को जितनी क्षति आंबेडकर ने पहुचाई है , उतनी किसी और ने नहीं। आज निम्नवर्णों के अधिकार की मांग करने वाले कितने सवर्ण हैं और कितने निम्नवर्ण के ? आंकडे देखें तो पता चलता है की अगर अभी तक कुछ उनका हित हुआ है , तो वो भी सवर्णों के हीं नेतृत्व में। और देश को किसने आपनी जात नही दिखाई क्या क्षत्रिओं को अपने क्षत्रित्व पे शर्मिंदगी नही आती जब उनके रहते मुस्लिम आक्रान्ताओं ने भारत की माँबेटिओं को अफगानिस्तान ले जा कर नीलाम किया अगर क्षत्रिय अपनी क्षत्रित्व को धिक्कारें ना , तो उन्हें शर्म आनी चाहिए , की १७ आक्रमण के बाद भी किसी को फ़िर से हमला करने देने की मोहलत देना , मुर्खता नहीं तो क्या है। आज भी अफगानिस्तान में ग़ज़नी चौक है , जहाँ लिखा हुआ हैइक भारत की बेटी यहाँ दस रुपये में नीलाम हुई थी
और वैश्य , अपने कृतित्व को कैसे भूल सकते हैं …… युध्ध कल में चाहे वह गोरों से हो या मुग़लों से , उनकी छावनी में रह रहे सैनिकों को अन्नपैसेऔर कपड़े मुहैया करना हीं इनी प्राथमिकता रही। क्या इनके सहयोग के बिना भारत घुलाम रह पता !

शूद्रों को देखें १८५७ का विद्रोह के नाकामयाबी के पीछे इनका सबसे बड़ा हाथ है दक्षिण भारत का सहयोग ना होने से हमारा विद्रोह असफल हो गया उनका मानना था की गर हम जीत गए तो सत्ता का स्वरुप वापसराजतन्त्रहोगा , जिसमे हमारी नियति पूर्व की हीं होगी
बातें बहुत हैं …. आप किसी जातिगत टिपण्णी कर के आपने दमन को साफ़ नही बता सकते। जरूरत यह नहीं की , इतिहास कुरेद कर कड़वाहट सामने लायी जाए। सुमन जी , गाय घास खाकर दूध देती है , और सौंप दूध पीकर जहर देता है

सपनो को दारगाह में अरसे बीते ………

तेरे ग़म के पनाह में अर्से बिते
आरजू के गुनाह में अर्से बिते
अब तो तन्हाई है पैरहम दिल की
सपनों को दारगाह में अर्से बिते

कुछ तो बिते हुए वक्त का तकाज़ा है
कुछ तो राहों ने शौकया नवाजा है
जब से सपनों में तेरा आना छुटा
नींद से मुलाक़ात के अर्से बिते

बिते हुए लम्हों से शिकवा नहीं
मिल जाए थोड़ा चैन ये रवायत नही
मेरे टुकडो में अपनी खुशी ढूँढो ज़रा
बिखरे इन्हे फुटपाथ पे अर्से बिते …….

"कबीरा खड़ा बाज़ार में" का उद्देश्य एवं अर्थ ….

कबीरा शब्द अपने आप में एक व्यापक अर्थ समेटे हुए है । मेरे ब्लॉग का नाम कबीरा खड़ा बाज़ार में रखने के पिछे एक बड़ा उद्देश्य है। “कबीर ” मात्र एक संत का नाम नही , यह अपने आप में एक बड़ी अवधारणा है । आपका नाम जो भी हो, आप अपने आप में एक पुरी प्रक्रिया हैं। कनिष्क , यानि मैं , एक पुरी प्रक्रिया है , किसी को किसी जैसा बनने के लिए उस पुरी प्रक्रिया से गुजरना होगा। … “कबीरा ” शब्द मात्र से हीं जो छवि उभरती है वह किसी आन्दोलन को प्रतिबिंबित करती है ।
“कबीर” ने जीवन पर्यंत तात्कालिक सामाजिक बुराइयों पे बड़े सुलझे ढंग से प्रहार किया। कबीर स्वयं में एक क्रांति थे । जाती धर्म और वर्ग से ऊपर उठकर उन्होंने सामान रूप से सभी पर कटाक्ष किया। कबीर “संचार “या आप जनसंचार कहें , की आत्मा हैं। “जनसंचार का काम सूचना देना “बड़ी हीं तुक्ष मानसिकता को दर्शाता है ।


“सुचना देना “और “ज्ञान देना ” दोनों में बड़ा हीं अन्तर है। परन्तु आज हमारा बौधिक स्तर इतना निक्रिष्ट हो गया है की ये फर्क समझ में नही आता। समझ में जिसे आता भी है तो वो इसके व्यापक अर्थ को जीवन में उतारना नही चाहता । किताबों से उपार्जित ज्ञान वास्तव में सुचना मात्र है। जब तक उसमे जनकल्याण और सार्थक , शुभ का उद्देश्य न छिपा हो , ज्ञान शब्द की परिभाषा पूर्ण नही होती।तभी तो आज कथित ज्ञान को पाकर भी लोग , आतंकवाद में जीवन का उद्देश्य पाल रहे हैं। मुझे हमेशा हीं इस बात का गर्व रहा कि , हम भारतीय भले हीं नागरिक जीवन प्रणाली के स्तर पर , सभ्य नही रहे हों , या यूँ कहे वर्तमान विकास की परिभाषा के कसौटी पर पिछड़े रहे हों। परन्तु मानव जीवन की, जीवन की सम्पूर्णता का आभास जितना हमारी जीवन प्रणाली में मिलता है , उतना कोई और सभ्यता में नही। इस बात में मैं स्व्यम से ज्यादा विश्वास करता हूँ।
हाँ तो…. आज का कबीर , यानि संचार बाज़ार में खड़ा है । बाज़ार के हाथ का पिठ्ठू बनकर । एसे हजारों उदहारण मिल जायेंगे जब “पत्रकारिता ” पैसों की रखैल बन , उनके इशारे पर ठुमके लगाती है। चाहे वह , ऐड्स को लेकर उठाया गया बवाल हो , आयोडिन युक्त नमक का मामला हो या गत वर्ष के महाप्रलय पर दिखने जाने वाला नाटक । सब के पीछे एक सोची समझी , फुल –प्लान्ड साजिश है । मिडिया का बाज़ार आब चंद बड़े महाराथिओं के इशारे पर चलता हैं। विश्व की दस बड़ी कम्पनियो का पुरे विश्व के संचार तंत्र पे कब्ज़ा है । अंदाजा लगना मुश्किल नही कि ,इनमे से अधिकांश अमेरिका कि कंपनिया हैं, जैसे “टाइम वार्नर ” रयुपर्ट मर्डोक साहब या वाल्ट डिज़नी । इन दसो कम्पनिओं ने एक बड़ी रणनीति के तहत , एक दुसरे के हितों को देखते हुए , बड़ा शेयर खरीद रखा है । ताकि कोई किसी का अहित न कर सके । सभी के वेंचर एक दुसरे में हैं।


संचार के तीन प्रमुख साधन , टी वी , टेलीफोन और इंटरनेट ..आज कल एक हीं साथ इसीलिए उतरा जा रहा है , ताकि आपके पुरे संचार प्रक्रिया को नियंत्रीत किया जा सके। इस बाज़ार में इतनी बड़ी-बड़ी मछलियाँ हैं कि हमारे छोटे झींगा कि क्या बिसात ?

हाँ , जब कभी ये, छोटी झींगा मछली किसी बड़े मछली के रस्ते में रोड़ा बनती नज़र आती है तो अपने मानवधिकार , लेबर कानून या पर्यावरण के मुद्दे को लेकर इनपर केस ठोक, इनका बेडागर्क कर दिया जाता है। तब या तो ये झींगा, उस दानव कंपनी का अधिपत्य स्वीकार कर लेती है , उसका पिठ्ठू बन जाती है , या मटियामेट हो जाती है । तभी तो आज आपको मुफ्त में अखबार दिए जा रहे है , और तो और पढने के पैसे भी मिलते हैं , अभी भारत में ऐसा नही है। परन्तु आपको तब आश्चर्य नही होना चाहिए , जब कल आप मुफ्त में टी वी बाटते देख लें ।

इस विषय को लेकर मैं बड़ी गहरी चिंता में हूँ। और मैंने व्यापक शोध- परख के बाद ” कबीर” को लक्ष्य बनाया है। इसी उद्देश्य से अच्छे और सामान सोच रखने वालों को इकठ्ठा करने के लिए ब्लॉग जगत में कदम रखा। पूर्ण रूप से भारत में अश्था रखने वाला और भारत को पाश्चात्य द्वारा सुनियोजित सांकृतिक आतंकवाद से युद्घ लड़ने का उद्देश्य हीं अब जीवन धारा को नियंत्रित करेगा ।

“कबीर ” को केन्द्र में रख कर एक सच्ची, जीवंत पत्रकारिता करने का उदेश्य है। फिलहाल हम एक ई-जर्नल से शुरुआत करते हैं। इसमे आप जैसे ब्लोग्गर्स का स्वागत है । आप नेतृत्व सम्भाल कर इस बड़े लक्ष्य के आगे , बौने बने कनिष्क का मार्गदर्शन करें । हमारी योजना जून महीने से , इस ई- जर्नल शुरु करने की है । इसके लिए पुरी योजना को अन्तिम रूप दिया जा रहा है , और कई गणमान्य व्यक्तिओं का अपेक्षा अनुसार सहयोग भी मिल रहा है ।
आपके इस अभियान को और व्यापक बनने के लिए हमने एक वेब- portal http://www.swarajtv.com/ की सुरुआत कर दी है । ये आपकी स्वर को और बुलंदी प्रदान करेगी।

कबीर भी इस स्थिति से वाकिफ थे , तभी तो उन्होंने वर्षों पहले कह दिया
“कबीरा खड़ा बाज़ार में लिए लुकाठी हाथ
जो घर जारो आपनो, हो लो हमरे साथ …..”

please mail me your opinion to greatkanishka@gmail.com , या विषय पर कोई सवाल सुझाव या आपति हो , तो भी आपका स्वागत है। http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com