यहां लगभग सभी बच्चे दस वर्ष की आयु पूर्ण होने तक अपनी इस सपेरा जाति की परंपरा का निर्वहन करना प्रारंभ कर देते हैं। लिंग भेद को दरकिनार करते हुए सपेरा जाति की महिलाएं अपने पति अथवा भाई आदि की अनुपस्थिति में इन सांपों की देखभाल करती हैं। साथ ही वे परंपरागत बीन बजाकर तमाशा भी दिखाती हैं।
इस सपेरा जाति के प्रमुख बाबानाथ मिथुनाथ मदारी कहते हैं कि तमाशा दिखाने का यह प्रशिक्षण दो बरस की आयु में ही प्रारंभ हो जाता है। परंपरागत तरीके से दिया जाने वाला यह प्रशिक्षण तब तक जारी रहता है जब तक प्रशिक्षु स्वयं अपने बल पर तमाशा दिखाने लायक नहीं बन जाता। बारह वर्ष की आयु तक बच्चे सांप के विषय में पर्याप्त जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। इसके बाद वे हजारों सालों से व भारत में राजाओं के समय से चली आ रही सपेरा जाति की इस परंपरा को निभाने के लिए पूरी तरह तैयार हो जाते हैं।
सपेरा वाड़ी जाति के ये लोग गुजरात के दक्षिणी इलाके में बेहद जहरीले सांपों के बीच रहते हैं। ये लोग किसी भी स्थान पर छह माह से अधिक नहीं ठहरते हैं। वाड़ी जाति के लोगों का सांपों से पौराणिक लोक गाथाओं के अनुसार जुड़ाव रहा है विशेषकर कोबरा प्रजाति के सांपों से। मदारी का कहना है कि जब देर रात हम अपने झोपड़ों के बाहर फुरसत के पलों में बैठते हैं तो अपने वंशजों के सांपों केदेवता और नागा जाति से हुए समझौते के बारे में चर्चा करते हैं।
हम बच्चों को विस्तार से समझाते हैं कि सांपों को किस तरह से अधिकतम सात माह तक उनके प्राकृतिक वास से दूर रखा जा सकता है। तमाशा दिखाने के दौरान या बाद में सांपों के साथ असभ्य व्यवहार की कोई गुंजाइश नहीं होती क्योंकि सांप और सपेरे के बीच गहरी मित्रता का भाव होता है। दोनों ही एक-दूसरे पर विश्वास दिखाते हैं।
वाड़ी जाति के प्रमुख कहते हैं कि हम सांपों के जहरीले दांतों को नहीं तोड़ते क्योंकि यह उनके साथ बहुत ही क्रूरता भरा व्यवहार होगा। हम उन्हें तंग नहीं करते क्योंकि ये सांप हमारे लिए अपने बच्चे की तरह ही होते हैं। मैंने बचपन से सांपों के साथ बिताए अपने जीवन में सांप द्वारा किसी आदमी को नुकसान पहुंचाय जाने की एक घटना के बारे में सुना है। इस घटना के पीछे का कारण यह था कि उस सांप को सात माह से अधिक अपने साथ रखा गया था।
सन १९९१ से जब से सांप का खेल दिखाना गैरकानूनी बना दिया गया है तब से सपेरा जाति पर राज्य और केंद्र सरकार का काफी दबाव बना हुआ है। मदारी कहते हैं कि जब भी कोई पुलिस कर्मी मिलता है तो वह हमारी जांच करता है और कुछ न कुछ छीनने का प्रयास करता है। हम राजकोट से 25 कि.मी. दूर रहते हैं और प्राय: भोजन और पानी की तलाश में गांव-गांव भटकते रहते हैं।