अभिलेख

जिस गांव में बच्चे खेलते हैं नागराज संग

अहमदाबाद. एक कक्षा जहां सभी ध्यानपूर्वक देख-सुन रहे हैं। कुछ ही दूर पर एक जहरीला सांप है जो ध्यान लगाने का एक बेहतर माध्यम बना हुआ है। पश्चिम भारत के सौ छह बंजारा वाड़ी जाति की छह वर्षीय रेखा बाई ने सभी अन्य बच्चों की तरह दो वर्ष की आयु में पहली बार कोबरा जैसे जहरीले सांप को अपने हाथ से पकड़कर महसूस किया था।
यहां लगभग सभी बच्चे दस वर्ष की आयु पूर्ण होने तक अपनी इस सपेरा जाति की परंपरा का निर्वहन करना प्रारंभ कर देते हैं। लिंग भेद को दरकिनार करते हुए सपेरा जाति की महिलाएं अपने पति अथवा भाई आदि की अनुपस्थिति में इन सांपों की देखभाल करती हैं। साथ ही वे परंपरागत बीन बजाकर तमाशा भी दिखाती हैं।
इस सपेरा जाति के प्रमुख बाबानाथ मिथुनाथ मदारी कहते हैं कि तमाशा दिखाने का यह प्रशिक्षण दो बरस की आयु में ही प्रारंभ हो जाता है। परंपरागत तरीके से दिया जाने वाला यह प्रशिक्षण तब तक जारी रहता है जब तक प्रशिक्षु स्वयं अपने बल पर तमाशा दिखाने लायक नहीं बन जाता। बारह वर्ष की आयु तक बच्चे सांप के विषय में पर्याप्त जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। इसके बाद वे हजारों सालों से व भारत में राजाओं के समय से चली आ रही सपेरा जाति की इस परंपरा को निभाने के लिए पूरी तरह तैयार हो जाते हैं।
सपेरा वाड़ी जाति के ये लोग गुजरात के दक्षिणी इलाके में बेहद जहरीले सांपों के बीच रहते हैं। ये लोग किसी भी स्थान पर छह माह से अधिक नहीं ठहरते हैं। वाड़ी जाति के लोगों का सांपों से पौराणिक लोक गाथाओं के अनुसार जुड़ाव रहा है विशेषकर कोबरा प्रजाति के सांपों से। मदारी का कहना है कि जब देर रात हम अपने झोपड़ों के बाहर फुरसत के पलों में बैठते हैं तो अपने वंशजों के सांपों केदेवता और नागा जाति से हुए समझौते के बारे में चर्चा करते हैं।
हम बच्चों को विस्तार से समझाते हैं कि सांपों को किस तरह से अधिकतम सात माह तक उनके प्राकृतिक वास से दूर रखा जा सकता है। तमाशा दिखाने के दौरान या बाद में सांपों के साथ असभ्य व्यवहार की कोई गुंजाइश नहीं होती क्योंकि सांप और सपेरे के बीच गहरी मित्रता का भाव होता है। दोनों ही एक-दूसरे पर विश्वास दिखाते हैं।
वाड़ी जाति के प्रमुख कहते हैं कि हम सांपों के जहरीले दांतों को नहीं तोड़ते क्योंकि यह उनके साथ बहुत ही क्रूरता भरा व्यवहार होगा। हम उन्हें तंग नहीं करते क्योंकि ये सांप हमारे लिए अपने बच्चे की तरह ही होते हैं। मैंने बचपन से सांपों के साथ बिताए अपने जीवन में सांप द्वारा किसी आदमी को नुकसान पहुंचाय जाने की एक घटना के बारे में सुना है। इस घटना के पीछे का कारण यह था कि उस सांप को सात माह से अधिक अपने साथ रखा गया था।
सन १९९१ से जब से सांप का खेल दिखाना गैरकानूनी बना दिया गया है तब से सपेरा जाति पर राज्य और केंद्र सरकार का काफी दबाव बना हुआ है। मदारी कहते हैं कि जब भी कोई पुलिस कर्मी मिलता है तो वह हमारी जांच करता है और कुछ न कुछ छीनने का प्रयास करता है। हम राजकोट से 25 कि.मी. दूर रहते हैं और प्राय: भोजन और पानी की तलाश में गांव-गांव भटकते रहते हैं।

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कुण्डली प्यार की : आचार्य संजीव ‘सलिल’

भुला न पाता प्यार को, कभी कोई इंसान.
पाकर-देकर प्यार सब जग बनता रस-खान
जग बनता रस-खान, नेह-नर्मदा नाता.
बन अपूर्ण से पूर्ण, नया संसार बसाता.
नित्य ‘सलिल’ कविराय, प्यार का ही गुण गाता.
खुद को जाये भूल, प्यार को भुला न पाता.

कुण्डली

आचार्य संजीव ‘सलिल’

पुरखे थे हिन्दू मगर हैं मुस्लिम संतान।
मजबूरी में धर्म को बदल बचाई जान।
अब अवसर फिर से गहें, निज पुरखों की राह।
मजबूरी अब है नहीं, मिलकर पायें वाह।
कहे ‘सलिल’ कविराय बिंदु से हो फिर सिन्धु।
फिर हिन्दू हों आप, रहे पुरखे भी हिन्दू।

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कुण्डली

प्यारी बिटिया! यही है दुनिया का दस्तूर।
हर दीपक के तले है, अँधियारा भरपूर।

अँधियारा भरपूर मगर उजियारे की जय।
बाद अमावस के फिर सूरज ऊगे निर्भय।

हार न मानो, लडो, कहे चाचा की चिठिया।
जय पा अत्याचार मिटाओ, प्यारी बिटिया।

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लोकतंत्र में लोक ही, होता जिम्मेवार।
वही बनाता देश की भली-बुरी सरकार।

छोटे-छोटे स्वार्थ हित, जब तोडे कानून।
तभी समझ लो कर रहा, आजादी का खून।

भारत माँ को पूजकर, हुआ न पूरा फ़र्ज़।
प्रकृति माँ को स्वच्छ रख, तब उतरे कुछ क़र्ज़।

‘सलिल’ न दूषित कर प्रकृति, मत कर आत्म-विनाश।
अमी-विमल नर्मदा सम, सबको बाँट प्रकाश।

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ग़ज़ल

तू न होकर भी यहीं है मुझको सच समझा गई ।
ओ मेरी माँ! बनके बेटी, फिर से जीने आ गई ।।

रात भर तम् से लड़ा, जब टूटने को दम हुई।
दिए के बुझने से पहले, धूप आकर छा गई ।।

नींव के पत्थर का जब, उपहास कलशों ने किया।
ज़मीं काँपी असलियत सबको समझ में आ गई ।।

सिंह-कुल-कुलवंत कवि कविता करे तो जग कहे।
दिल पे बीती आ जुबां पर ज़माने पर छा गई ।।।

बनाती कंकर को शंकर नित निनादित नर्मदा।
ज्यों की त्यों धर दे चदरिया ‘सलिल’ को सिखला गई ।।

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दोहे

जो सबको हितकर वही, होता है साहित्य।
कालजयी होता अमर, जैसे हो आदित्य।

सबको हितकर सीख दे, कविता पाठक धन्य।
बडभागी हैं कलम-कवि, कविता सत्य अनन्य।

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