अभिलेख

मोदी के गुजरात में घास-फूस खाकर जिंदा हैं आदिवासी

लुणावाड़ा (गुजरात). विकसित राज्यों की श्रेणी में शामिल होने का दावा करने वाले गुजरात में पंचमहाल जिले के राजस्थान से सटे इलाकों में विकास की लहर नहीं पहुंच सकी है। बिजली, पानी, आवास और रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाओं के अभाव में इन इलाकों के आदिवासियों को जिंदा रहने के लिए मजबूरन घास खानी पड़ रही है। ये आदिवासी पेड़ों की हरी पत्तियां और घास-फूस खाकर अपना पेट भरते हैं। यूं बेघर हुए

भुवाबार गांव के पास पर्वतीय क्षेत्र में इन आदिवासियों का बसेरा है। इलाके में कडाणा बांध बनने के बाद इनकी जमीनें डूब क्षेत्र में आ गई थी। लेकिन उन्हें इसका पर्याप्त मुआवजा नहीं मिला। अपने ही इलाके में बेगाने हो गए कई आदिवासी परिवार राजस्थान चले गए, लेकिन एक हजार से अधिक आदिवासी गांव से करीब 15 किमी दूर पर्वतीय क्षेत्र में आकर बस गए।

हफ्ते में एक दिन अनाज
घास-फूस के छप्परों में रहने वाले इन आदिवासियों को पीने के पानी के लिए ढाई किमी दूर बने एक हैंडपंप पर निर्भर रहना पड़ता है। पानी के अभाव में खेती का नामोनिशान नहीं है। मजदूरी करने के लिए करीब दस किमी दूर तक जाना होता है, लेकिन वहां भी उन्हें सिर्फ दो-तीन रुपए की मजदूरी ही दी जाती है। सप्ताह में एक दिन मजदूरी मिलने पर जब अनाज खाने को मिलता है तो मानों उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता।

बनाते हैं घास की कढ़ी

जब घर में अनाज नहीं होता, तब आदिवासी पेड़ों की पत्तियों और वनस्पतियों को पकाकर खाते हैं। घास का उकाला या घास की कढ़ी उनका ‘मनपसंद’ आहार है। एक रोचक बात यह है कि माचिस न होने के कारण ये लोग पत्थर को घिसकर आग जलाने के बाद भोजन पकाते हैं।

मतदाता सूची में नाम नहीं
आदिवासी परिवारों के अधिकांश सदस्यों के नाम मतदाता सूची में नहीं हैं। उनके पास बीपीएल कार्ड नहीं होने से उन्हें भुवाबार गांव की राशन दुकान से सामान नहीं मिल पाता।





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गीतिका : आचार्य संजीव ‘सलिल’

चल पड़े अपने कदम तो,मंजिलें भी पायेंगे.
कंठ-स्वर हो साज़ कोई, गीत अपने गायेंगे.
मुश्किलों से दोस्ती है, संकटों से प्यार है.
‘सलिल’ बनकर नर्मदा हम, सत्य-शिव दुहारायेंगे.
स्नेह की हर लहर हर-हर, कर निनादित हो रही.
चल तनिक अवगाह लें, फिर सूर्य बनकर छायेंगे.
दोस्तों की दुश्मनी की ‘सलिल’ क्यों चिंता करें.
दुश्मनों की दोस्ती पाकर मरे- जी जायेंगे.
चुनें किसको, तजें किसको, सब निकम्मे एक से.
मिली सत्ता तो ज़मीं से, दूर हो गर्रायेंगे.
दिल मिले न मिलें लेकिन हाथ तो मिलते रहें.
क्या पता कब ह्रदय भी हों एक, फिर मुस्कायेंगे.
स्नेह-सलिला में नहाना, ‘सलिल’ का मजहब धरम.
सफल हो श्रम साधना, हम गगन पर लहरायेंगे.