अभिलेख

ऐसे बदलें शिक्षा का चेहरा



हमारे यहां बच्चों की बढ़ती संख्या के अनुपात में अच्छे स्कूलों का नितांत अभाव है। एक अनुमान के अनुसार यदि छात्र-शिक्षक अनुपात को संतोषजनक स्तर पर बरकरार रखना है तो हमें कम से कम तीन गुना अधिक स्कूल चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सरकार के पास इतना पैसा नहीं है कि वह सभी स्कूलों को वित्तीय सहायता दे सके। स्कूलों को वित्तीय दृष्टि से स्वयं सक्षम होना होगा।

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल भी हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नक्शेकदम पर चल रहे हैं। सिब्बल के पास नेहरू के जैसा ही विजन है, नेहरू के समान ही एक सपना है। लेकिन दुर्भाग्य से नेहरू के समान ही सिब्बल भी प्राथमिक शिक्षा की तुलना में उच्च शिक्षा को ज्यादा महत्व दे रहे हैं। सवाल है कि दस साल की सड़ी-गली शिक्षा से जो नुकसान हो चुका होगा, क्या उसकी खानापूर्ति चार-पांच साल की कॉलेज शिक्षा से की जा सकती है?

विभिन्न अध्ययनों व सर्वे से एक बात सामने आई है कि बिहार के प्राथमिक स्कूलों के बच्चों का प्रदर्शन महाराष्ट्र, गुजरात या मध्यप्रदेश के स्कूली बच्चों से बेहतर रहा है। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि बिहार में रोजगार के वैकल्पिक साधन उपलब्ध नहीं होने से अच्छे शिक्षक स्कूलों में ही बने रहे, जबकि भारत के अनेक राज्यों में कई अच्छे शिक्षकों ने स्कूल छोड़ दिए। इसलिए इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आईआईटी और आईएएस पास करने वालों में एक बड़ी संख्या बिहार के विद्यार्थियों की होती है।

यदि स्कूली पढ़ाई अच्छी है तो इसके बाद की सारी शिक्षा अच्छी रहेगी। यदि शिक्षक स्कूल छोड़ने लगें तो क्या किया जाना चाहिए? इसका सीधा सा जवाब है शिक्षा के पेशे को अन्य पेशों से अधिक आकर्षक बनाना। अधिकांश शिक्षकों ने पूर्वकालिक पेशे के रूप में शिक्षण कार्य को जिन वजहों से छोड़ा है, वे हैं: काफी कम वेतन, बदतर विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात जिससे शिक्षक छात्रों पर व्यक्तिगत ध्यान नहीं दे पाते हैं, शिक्षकों के खिलाफ बढ़ती हिंसा, गैर शिक्षण कार्यो जैसे चुनाव डच्यूटी और जनणगना इत्यादि का बोझ, पेशे की मर्यादा कम होना। बदकिस्मती से आखिरी कारण अक्सर पहले चार कारणों की परिणति होता है। कम वेतन, शिक्षकों के खिलाफ बढ़ती हिंसा और राजनीतिक दखल की वजह से अच्छी प्रतिभाएं शिक्षा के पेशे को छोड़कर जा रही हैं।

इसलिए इस बात में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कैट, आईआईटी-जी या मेडिकल प्रवेश परीक्षाओं में सफल होने वाले अधिकांश बच्चे उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों के होते हैं, जो निजी शिक्षा को वहन कर सकते हैं। इनमें अनेक बच्चे ऐसे परिवारों के होते हैं जिनके माता-पिता दोनों शिक्षित होते हैं और वे अपने बच्चों को घर पर भी पढ़ाते हैं। इस प्रकार बहुत ही सामान्य परिवारों से आने वाले वे बच्चे जो केवल हमारे स्कूली सिस्टम पर निर्भर होते हैं, प्राय: प्रतियोगी परीक्षाओं में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते, केवल कुछ बहुत ही विलक्षण प्रतिभाओं को छोड़कर।

यहां कुछ कार्य तत्काल किए जाने की जरूरत है। मैं इस सिलसिले में पांच सिफारिशें पेश कर रहा हूं। सिफारिश 1 : शिक्षकों को खुली प्रतिस्पर्धा की अनुमति दी जानी चाहिए, जिसमें वे उसी तरह वेतन के लिए मोल-भाव कर सकें, जिस तरह निजी क्षेत्र में करते हैं। यह साफ है कि सरकार से स्कूलों के बढ़े वेतन बिल के भुगतान की उम्मीद नहीं की जा सकती। इसलिए सरकार को स्कूलों को अपने संसाधन जुटाने की अनुमति दे देनी चाहिए।

सिफारिश 2 : स्कूलों को ज्यादा फीस लेने की अनुमति दी जानी चाहिए ताकि वे वेतन और अन्य खर्चो को वहन कर सकें। लेकिन यहां सवाल उठेगा कि इससे स्कूलों के प्रबंधन शिक्षा से लाभ कमाने को प्रेरित नहीं होंगे? हां, लेकिन क्या चैरिटेबल अस्पतालों के प्रबंधन भी मेडिकल बीमा से मुनाफाखोरी नहीं करते? एक शर्त यह रखी जा सकती है कि उच्च फीस वसूलने वाले स्कूलांे के बच्चों को हर दो साल में एक बार अंग्रेजी, गणित और विज्ञान विषयों में केंद्र संचालित परीक्षा से गुजरना होगा और इनमें से ९क् फीसदी बच्चों को यह परीक्षा पास करना जरूरी होगा।

यदि १क् फीसदी से अधिक बच्चे फेल हो जाते हैं तो स्कूल के मौजूदा प्रबंधकों को स्कूल प्रबंधन से हटा दिया जाएगा। ऐसे स्कूलों का प्रबंधन उनके हाथों मंे सौंप दिया जाएगा, जो अपने विद्यार्थियांे को बेहतर ढंग से शिक्षित कर रहे होंगे। प्रबंधन से हाथ धोने के डर से स्कूलों के प्रबंधक अच्छे शिक्षक रखेंगे, शिक्षा का समुचित परिवेश का निर्माण करेंगे और यह सुनिश्चित करेंगे कि शिक्षक व विद्यार्थी मिलकर काम करें। इससे विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात बेहतर होगा, बच्चों पर अच्छी तरह से ध्यान दिया जा सकेगा और इस तरह अच्छी शिक्षा मिल सकेगी।

सिफारिश 3 : उच्च फीस का सीधा संबंध विद्यार्थी के प्रदर्शन से होगा। विद्यार्थियांे के प्रदर्शन को बरकरार नहीं रख पाने की स्थिति में स्कूल के प्रबंधक बदल दिए जाएंगे। इससे कुछ हलकों में यह भय भी पैदा हो जाएगा कि कहीं शिक्षा धनवानों का ही तो विशेषाधिकार नहीं बन जाएगा और क्या वही बच्चे अच्छे स्कूल जा पाएंगे, जिनके अभिभावक ज्यादा फीस वहन कर सकेंगे? इसका जवाब अगली सिफारिश में मिलेगा।

सिफारिश 4 : सब्सिडी की व्यवस्था लागू की जा सकती है। यह व्यवस्था ऐसी होगी कि इसमें ३क् फीसदी योग्य छात्रों को कम फीस देनी होगी जिनका खर्च धनवान परिवारों के बच्चों की फीस से वहन किया जाएगा। यदि कोई गरीब बच्च अकादमिक अध्ययन के लिए योग्य नहीं पाया जाता है तो उसे स्कूल में भर्ती होने के बजाय वोकेशनल सेंटर में शामिल होने को कहा जा सकता है।

अब हम सबसे बड़ी बाधा पर पहुंच गए हैं और वह यह है कि हमारे यहां बच्चों की बढ़ती संख्या के अनुपात में अच्छे स्कूलों का नितांत अभाव है। एक अनुमान के अनुसार यदि छात्र-शिक्षक अनुपात को संतोषजनक स्तर पर बरकरार रखना है तो हमें कम से कम तीन गुना अधिक स्कूल चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सरकार के पास इतना पैसा नहीं है कि वह सभी स्कूलों को वित्तीय सहायता दे सके।

स्कूलों को वित्तीय दृष्टि से स्वयं सक्षम होना होगा। चूंकि शिक्षा राज्यों का विषय है, इसलिए राष्ट्रीय नीति लागू करने के लिए वित्तीय महातंत्र ही एक तार्किक समाधान होगा। वित्तीय लाभ अर्जित करने के लिए स्कूलों के प्रबंधन को निश्चित मानकों का पालन करना होगा। हालांकि प्रबंधन के अनुमोदन का अधिकार राज्यों के पास ही होगा, वित्तीय इंसेंटिव और संबंधित शर्तो को लागू करने की जिम्मेदारी केंद्र की होगी। यदि स्कूल प्रबंधन विफल हो जाता है तो सारे वित्तीय लाभ उससे वापस लिए जा सकेंगे।

यदि मानकों में पारदर्शिता होगी तो हम शिक्षा में क्रांतिकारी बदलाव ला सकते हैं। इससे यह भी सुनिश्चित हो सकेगा कि दसवीं की परीक्षा केवल योग्य परीक्षार्थी ही उत्तीर्ण कर सकें ताकि कॉलेजों पर उन विद्यार्थियों का दबाव कम हो सके, जिनकी अकादमिक दक्षता हासिल करने में कोई विशेष रुचि नहीं है। इससे कॉलेज राजनीति की उर्वरा जमीन बनने से भी बच सकेंगे। सिफारिश 5 : ऐसी वित्तीय नीति बनाना जो नए स्कूलों में भारी निवेश को प्रोत्साहित करे।

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शिक्षक ,अभिवाभाक , बच्चे —त्रिकोण ? एक व्यर्थ की बहस-

सितम्बर , शिक्षक दिवस पर हर जगह ,टीवी,अखवार,गोष्ठियों में –इस त्रिको पर बहस होरही है ; मेरी समझ से यह बाहर की बात है की आख़िर इन तीन महत्वपूर्ण -व्यक्तित्वों को त्रिकोण पर क्यों होना चाहिए ? तीनों को एक बिन्दु पर रक्खकर क्यों नहीं देखा जाता? बहस का तो कोई मुद्दा ही नहीं है । अधिकार कर्तव्यों केसमुचित निभाने पर मिलते हैं, बच्चों को अभी अपने कर्तव्यों का ही नहीं पता ,अभी किसी कार्य के लिए सक्षम नहीं ,तो उनके अधिकार कहाँ से आए? यह पश्चिमी -रिवाज़ है जो बच्चों को स्कूल में पिस्टल व गोली लाने व साथियों पर चलाने को प्रेरित करता है| पिताव शिक्षक पर मुकदमा को प्रेरित करता है।उन्हें अधिकार नहीं अच्छा मनुष्य बनने के लिए उचित शिक्षा ग्रहण करने दीजिये ,कराइए । हर वर्ष की भांति रटी-रटाई बातें,शिक्षक,पेरेंट्स के कर्तव्य व बच्चों के अधिकारों पर बहस से कुछ नहीं होगा । वस्तुतः होना यह चाहिए
१-शिक्षक,अभिवावकों ,बच्चों को कर्तव्य,अधिकार आदि रटाने की बजाय , सभी को सिर्फ़ अच्छा इंसान बनाना चाहिए बाकी सारा काम स्वयं ही होजायगा।
२–५ वर्ष की आयु से कम कोई बच्चा स्कूल न भेजा जाय।
३- जूनियर कक्षाओं तक सारे स्कूल एक से ,एक श्रेणी के ,एक स्तर के होने चाहिए ,शुल्क व सुविधाएं भी समान होनी चाहिए। चाहे वे सरकारी हों या संस्थाओं के या व्यक्तिगत ।
———देखिये फ़िर कितनी जल्दी सब सुधर जाता है।

अनुशासन हीन क्यों है पीढी ????

उछाले गये प्रश्न,
 अनुशासन हीन क्यों है आ्ज की पीढी ?
क्यों हें दूरियां,द्वन्द्व,अन्तर्द्वन्द्व-
बच्चों व माता पिता में ?
चुनते रहे पत्तियां,
बच्चों पर हैं बडे दबाव,पढाई के ,ट्यूशन के,
मां-बाप की आकान्क्षाओं के ।
ब्च्चों से सीखें मां- बाप,
बच्चों को गुरू मानकर।
्बच्चों को सिर्फ़ पैसे सुविधा नहीं,
अपना समय भी दें,मित्र बनें,पूरी बात सुनें ,समझें ।
बच्चे भी मां बाप की सुनने की बजाय ,
अपनी ही तानते हैं;
्टीचर व दोस्तों कि अधिक मानते हैं,
टी. वी.,सिनेमा,इन्टर्नेट को अधिक पहचानते हैं ।

कौन जा पाया जड में
आरहा है देश में, अवान्छित धन,
योरोप,अमेरिका के जुआघरों,
चकलाघरों,नन्गे नाच के क्लबों,
आतन्क्बाद्व व ् निरीहों पर अत्याचार व-
शस्त्रों की होड के पोषण के लिये,
हथियारों की बिक्री की कमाई का ।
कभी बिकास के नाम पर,सहायता व कर्ज़,
एवम एन.जी.ओ. प्रोजेक्ट या–
बहुराश्ट्रीय कम्पनियों ्के बिकास में लिप्त-
हमें, मोटी-मोटी आमदनी, पे-पर्क्स, के रूप में ।

“”जैसा खायें अन्न, वैसा होगा मन। “”

वीकएंड टाइमपास…

देश फिलहाल बड़ी-बड़ी चिंताओं से घिरा है। कहीं चुनावी घोषणा पत्र जारी हो रहे हैं, आईपीएल साउथ अफ्रीका चला गया है, अक्षय कुमार पर केस चल रहा है…… यानि सबकी अपनी अपनी चिंताएं हैं…इन चिंताओ के बीच इन नन्हे मुन्नो के टेंशन को देखिए, शायद एक पल को आप का तनाव दूर हो जाए। भास्कर डॉट कॉम के व्यूअर्स ने हमें भेजा है नन्हें मुन्नों का एक चटपटा सा चित्र … हमनें सोचा वीकएंड पर इसे आपके साथ शेयर करें।आगे पढ़ें के आगे यहाँ

किस मुंह से धोनी के पास जाओगे…

हरीश चंद्र बर्णवाल

हते हैं टीम इंडिया में एक से बढ़कर एक हीरा है। कहते हैं इस समय की इंडियन क्रिकेट टीम देश की सर्वश्रेष्ठ क्रिकेट टीम है। कहते हैं भारतीय क्रिकेट का बैटिंग लाइनअप इससे बढ़िया कभी नहीं रहा। बॉलिंग में भी ऐसी वैरायटी कभी नहीं रही। ये टीम दुनिया की किसी भी टीम का कहीं भी मुकाबला कर सकती है। इस टीम में क्रिकेट के सभी फॉर्मेट में जीतते रहने का हुनर है। इसे सिर्फ जीतना आता है। हारना तो बस समझ लीजिए कि जब ये टीम चाहेगी तभी हारेगी। पर ये क्या…? नेपियर में तो पूरी टीम ही नप गई! क्या बैटिंग, क्या बॉलिंग और क्या फील्डिंग, हर मोर्चे पर इतना लिजलिजापन! क्या हो गया टीम इंडिया को?वही सचिन, वही सहवाग, वही लक्ष्मण, द्रविड़, विस्फोटक युवराज भी हैं। मगर सबके सब तीन सौ तक पहुंचते-पहुंचते ही निपट गए। ये भी न सोचा कि कीवियों ने रनों का पहाड़…आगे पढ़ें के आगे यहाँ

कितने पाकिस्तान


पंकज श्रीवास्तव
एसोसिएट एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर

जिनके पास सामान्य ज्ञान बढ़ाने का एकमात्र जरिया समाचार चैनल रह गए हैं, उनका हैरान होना लाजिमी है। उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि ये कैसा पाकिस्तान है। सड़कों पर लाखों की भीड़। हवा में जम्हूरियत और आजादी के तराने। स्वात में शरिया लागू होने की गरमा-गरम खबरों की बीच अचानक आजाद न्यायप्रणाली के पक्ष में ये तूफान कैसे उठ गया! बिना खड्ग-बिना ढाल, बस जुल्फें लहराकर काले कोट वालों ने ये कैसा कमाल कर दिया। सेना खामोश रही। पुलिस भी कभी-कभार ही चिंहुकी…और इफ्तेखार चौधरी चीफ जस्टिस के पद पर बहाल हो गए!


पाकिस्तान के इतिहास को देखते हुए ये वाकई चमत्कार से कम नहीं। आम भारतीयों को इस आंदोलन की कामयाबी की जरा भी उम्मीद नहीं थी। सबको लग रहा था कि लॉंग मार्च बीच में ही दम तोड़ देगा। जरदारी जब चाहेंगे आंदोलनकारियों को जेल में ठूंस देंगे। 16 मार्च को इस्लामाबाद पहुंचना नामुमकिन होगा। ये भी बताया जा रहा था कि लांग मार्च में तालिबानी घुस आए हैं। कभी भी धमाका हो सकता है। लॉंग मार्च में मानव बम वाली खबर भी अरसे तक चीखती रही। लेकिन गिद्दों की उम्मीद पूरी नहीं हुई। पाक सरकार के गुरूर ने जरूर दम तोड़ दिया। प्रधानमंत्री गिलानी को टी.वी. पर अवतरित होकर मांगे मानने का एलान करना पड़ा। साथ में सफाई भी कि पहले मांगें क्यों नहीं मानी गईं।


इस तस्वीर ने साफ कर दिया कि पड़ोसी पाकिस्तान के बारे में हमारी जानकारी कितनी अधूरी है। सरकारों और समाचार माध्यमों को जरा भी रुचि नहीं कि वे पाकिस्तान की पूरी तस्वीर जनता के सामने रखें। उनके लिए तो स्वात पूरे पाकिस्तान की हकीकत है। जहां हर आदमी कंधे पर क्लाशनिकोव उठाए निजाम-ए-मुस्तफा लागू करने के लिए जिहाद में जुटा है। जहां औरतें हमेशा बुरके में रहती हैं। गाना-बजाना बंद हो चुका है। बच्चों को आधुनिक स्कूलों में भेजना मजहब के खिलाफ मान लिया गया है और साइंस और मडर्निटी की बात करना भी गुनाह है। बताया तो ये भी जा रहा था कि तालिबान लाहौर के इतने करीब हैं कि भारतीय सीमा पर भी खतरा बढ़ गया है। वे जब चाहेंगे कराची पर कब्जा कर लेंगे और इस्लामाबाद को रौंद डालेंगे। पाकिस्तान की ये तस्वीर बेचकर गल्ले को वोट और नोट से भरने का रास्ता मिल गया था।


लेकिन पूरे पाकिस्तान से इस्लामाबाद की ओर बढ़ने वाले कदम तालिबान के नहीं, उस सिविल सोसायटी के थे जो पाकिस्तान की तस्वीर बदलने के लिए अरसे से तड़प रही है। इनमें मर्द, औरत, बूढ़े, जवान, यहां तक कि बच्चे भी थे। न इन्हें बंदूकों का खौफ था न ही भीड़ के बीज फिदायीन के घुसने की आशंका। काले कोट पहने नौजवान वकला की भारी भीड़ हर तरफ से उमड़ी आ रही थी। इनमें बड़ी तादाद में महिला वकील भी थीं। पुरजोश और इंकलाबी अंदाज से भरी हुई। सब झूम-झूमकर नारे लगा रहे थे और भंगड़ा डाल रहे थे। अखबार और न्यूज चैनल के पत्रकारों का जोश देखकर लग रहा था गोया कोई जंग जीतने निकले हों। ये अहिंसक आंदोलन आजादी के पहले उस दौर की याद दिला रहा था जब लाहौर और कराची में करो या मरो और अंग्रेजों भारत छोड़ो जैसे नारे गूंजते थे। न लाठियों का खौफ था और न गोलियों का। आज तालिबान का गढ़ माने जाने वाले सीमांत इलाके के पठान लाल कुर्ती पहनकर महात्मा गांधी की जय बोल रहे थे। जिन्हें हिंसक कबायली कहकर प्रचारित किया गया था उनके इस अहिंसक रूप को देखकर दुनिया को यकीन नहीं हो रहा था। तब वे खुदाई खिदमतगार कहलाते थे।


भारत में देश की व्यवस्था बदल देने का ऐसा जोश दशकों से देखने को नहीं मिला। 34 साल पहले इमरजेंसी के खिलाफ जनता ने अपने जौहर दिखाए थे। थोड़ी बहुत सुगबुगाहट वी.पी.सिंह ने भी पैदा की थी। लेकिन संपूर्ण क्रांति का नारा भ्रांति साबित हुआ और वी.पी.सिंह के सामाजिक न्याय का रथ जातिवादी कीच में धंसकर अपनी तेजस्विता खो बैठा। इसके बाद तो मनमोहनी अर्थशास्त्र ने ऐसा जादू चलाया कि राजनीति के हर रंग ने समर्पण कर दिया। इस जादू पर मुग्ध मध्यवर्ग देखते-देखते गले तक कर्ज में डूब गया। उसकी जिंदगी में किसी सपने के लिए जगह ही नहीं बची। इस खुमार के टूटने की शुरुआत अब हुई है जब मंदी का जिन्न दरवाजे पर दस्तक दे रहा है।


ऐसे में, पाकिस्तान में जनउभार देखना वाकई सुखद था। इसने फिर साबित किया कि जनज्वार के सामने बड़ी से बड़ी सत्ता बेमानी हो जाती है। टी.वी.पर इन दृश्यों को देखकर न जाने कितनी बार मुट्ठियां भिचीं और नारे लगाने का मन हुआ। पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था कि ये अपनी ही लड़ाई है। ये वो पाकिस्तान कतई नहीं है जिसके खिलाफ बचपन से जवानी तक घुट्टी पिलाई गई है। ये लोग जिस व्यवस्था के हक में खड़े हैं उसमें लड़कियों को पढ़ने की पूरी आजादी है, अल्पसंख्यकों और मानवाधिकार की सुरक्षा का वादा है, क्रिकेट और संगीत के लिए पूरी जगह है। फैज हैं, फराज हैं, मंटो हैं, नूरजहां हैं गुलाम अली हैं, मेहंदी हसन हैं। साइंस के इदारे है और मोहब्बत का जज्बा भी। हां गुस्सा भी है, अपने कठपुतली हाकिमों और उस अमेरिका के खिलाफ जिसने इस देश की संप्रभुता को तार-तार कर दिया है। (बची किसकी है?)


साफ है कि पाकिस्तान के हालात काफी जटिल हैं। एक तरफ वहां बार-बार सत्ता पलट करने वाली सेना है तो दूसरी तरफ भ्रष्टाचार से देश को खोखला करने वाले राजनेता। मजहबी राज बनाने में जुटे कठमुल्लाओं की जमात है तो पाकिस्तान को आधुनिक स्वरूप देने की जद्दोजहद में जुटी सिविल सोसायटी भी। इन सबके बीच जम्हूरियत का जज्बा लगातार मजबूत हो रहा है। इसीलिए जनरल कियानी ने तख्ता पलट की जुर्रत नहीं हुई। उलटा उन्होंने गिलानी और जरदारी को समझाया कि जनदबाव के आगे सिर झुकाएं। पाकिस्तान में हो रही इस नई सुबह को नए सिरे से समझने की जरूरत है।


इसमें क्या शक कि मुंबई में आकर मौत बरसाने वाले आतंकी पाकिस्तान की जमीन से आए थे। कसाब को छोड़कर सबको मार गिराया गया। पर रक्तबीज की तरह पाकिस्तान में इनकी तादाद न बढ़े इसकी गारंटी सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान की सिविल सोसायटी कर सकती है। और मार्च 2009 में उसने जो तेवर दिखाया, उससे साफ है कि उसके पास इसका माद्दा है। पाकिस्तानी न्यूज चैनलों ने जिस तरह पहले मुंबई हमले को लेकर कसाब की असलियत खोली और फिर लाहौर में श्रीलंका टीम पर हुए हमलावरों को बेनकाब किया, उसने इसे बार-बार साबित किया है। इसलिए जरूरत इस जज्बे को सराहने की है, सलाम करने की है। जम्हूरियत की मजबूती ही उपमहाद्वीप को आतंकवाद से मुक्त कर सकता है।


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हिन्दी ब्लॉग्गिंग किसके लिए hai?

आज से आगे पहले नटखट बच्चे आगे पढ़े पोस्ट लिखी थी की हिन्दी ब्लॉग्गिंग लौंडो -लापाडो के लिए नही है”
उसको १५ कमेन्ट मिले उनसे लोगो ने जवाब माँगा था की आप बता दे किसके लिए हैं लेकिन उसने जवाब नही दिया मैंने यह पोस्ट कल देखी थी तो सोचा के यह गहन विचार विमर्श का मसला है, क्यूंकि मैंने कई ब्लोग्स पर उम्र मे बडो लोगो को छोटो की खिचाई करते पाया, किसी कम उम्र के व्यक्ति के लिए ऐसा पढ़ कर थोड़ा बुरा लगता है…….

इसीलिए सोचा क्योँ इस विषय पर विचार किया जाए, लोग कहते है की अक्ल उम्र और तजुर्बे के साथ आती है लेकिन अब यह सब बदल चुका है पहले इंसान की उम्र ९०१०० साल हुआ करती थी इसीलिए उसका दिमाग एक वक्त के बाद अच्छा चलता था…..लेकिन अब इंसान की उम्र बहुत कम हो गई तो उसका दिमाग काफ़ी तेज़ी से काम करता है, आज कल के बच्चे के सामने आप कोई काम कर दीजिये वो फ़ौरन उसको दौराहेगा और एकदो कोशिशों मे ही उसे ठीक से कर लेगा और हो सकता है की कुछ दिनों बाद वो उस काम को आप से अच्छी तरह और आप से जल्दी करने का कोई तरीका निकल ले….. आगे पढ़े