अभिलेख

मेरे अच्छे दोस्त जॉर्ज

जॉर्ज फर्नाडीज के लिए मेरे दिल में सदैव एक स्थान रहा है। मैं उन्हें पिछले करीब 40 सालों से अलग-अलग रूपों में जानता हूं। उनमें वह सबकुछ था, जो मुझमें नहीं था। अपनी पहली ही मुलाकात के दौरान मैंने उन्हें ऐसे आकर्षक गठीले युवक के रूप में पाया जिसमें जीवन जीने का उत्साह कूट-कूटकर भरा हुआ था। इसी वजह से कई सुंदर महिलाएं उनके प्रति आकर्षित हुईं। उधर मैं एक थुलथुल सरदार। जॉर्ज को मैंने पहली बार तब देखा था, जब वे ग्रीष्मकाल की एक तपती दोपहरी में काला घोड़ा चौक स्थित एक छोटे से मंच पर खड़े होकर मुंबई के सैकड़ों कैब चालकों को अपने हक के वास्ते संघर्ष करने के लिए प्रेरित कर रहे थे। उसी शाम को मैं उनसे एक कॉकटेल पार्टी में मिला। उस पार्टी में वे आभूषणों से लदे मुंबई के भद्रजनों के आकर्षण का केंद्र बन गए थे। वे उन लोगों से उतनी ही सहजता से बातचीत कर रहे थे, जितनी सहजता से वे दोपहर में टैक्सी ड्राइवरों को संघर्ष के लिए ललकार रहे थे। हम दोनों जो एक बात साझा करते थे, वह यह थी कि हमें सभी धर्मो से चिढ़ थी। वे कैथोलिक धर्म में पैदा हुए थे, लेकिन उसका अनुसरण उन्होंने कभी नहीं किया। मेरा उनसे नाता थोड़े समय के लिए तब टूट गया, जब उन्होंने हुमायूं कबीर की पुत्री लैला से विवाह कर लिया। लैला एक बंगाली महिला थीं। हालांकि उनका एक पुत्र हुआ, लेकिन यह शादी ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाई। जॉर्ज कभी भी एकल महिलानिष्ठ पुरुष नहीं थे। सुनने में आया कि उनकी कई महिला मित्र थीं जिनमें बेंगलुरू की एक फिल्मी तारिका भी शामिल थी। जॉर्ज इंदिरा गांधी के कटु आलोचक थे। जब इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा दी तो पुलिस जॉर्ज को ढूंढ़ती रही। वे भूमिगत हो गए। उन्होंने दाढ़ी बढ़ा ली और पगड़ी बांधना सीख गए। उन्हांेने एक सिख का वेश धारण कर लिया। वे जब हवाई जहाज से पूरे देश का दौरा करने निकले तो उन्होंने अपनी टिकट मेरे नाम से बुक करवाई, क्योंकि जब उनसे पूछा गया होगा तो उन्हें और किसी सिख का नाम ध्यान नहीं आया होगा। जब बाद में मैंने उनसे पूछा, ‘आपने ऐसा क्यों किया क्योंकि आप न तो पंजाबी बोल सकते हैं और मुझे कई लोग जानते भी हैं।’ वे धीरे से मुस्कराए और बोले, ‘मैंने उनसे कहा कि मेरा जन्म और लालन-पालन कनाडा में हुआ। इसके बाद किसी ने भी मुझसे यह नहीं पूछा कि क्या आप खुशवंत सिंह हैं?’ हालांकि बाद में उन्हें पुलिस ने पकड़ ही लिया। उनके साथ थर्ड डिग्री का बर्ताव किया गया और यहां तक कि ‘एनकाउंटर’ में मारने के लिए उन्हें बाहर भी ले जाया गया था।नवंबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के परिणामस्वरूप हुए सिख विरोधी दंगों के बाद जॉर्ज ने पीड़ित परिवारों के पुनर्वास के लिए एक राहत संस्था बनाई थी। विदेशों में रहने वाले सिखों से मुझे काफी चंदा मिला था जो मैंने जॉर्ज की संस्था के हवाले कर दिया, ताकि उसे जरूरतमंदों के बीच बांटा जा सके। मैं उनकी नई मित्र जया जेटली से भी काफी परिचित रहा हूं। मैं उन्हें उनके स्कूली दिनों से ही जानता हूं। उनका परिवार मेरे पड़ोस के ही ब्लॉक में रहता था। स्कूल और कॉलेज में उनके साथ पढ़ने वाले सभी लड़कों का दिल उनके लिए धड़कता था। इसके बाद मैंने जॉर्ज फर्नाडीज को एक रक्षा मंत्री के रूप में देखा, लेकिन मंत्री बनने के बाद भी उनके व्यवहार में तनिक भी बदलाव नहीं आया। उनकी कार पर न तो कोई लाल बत्ती चमकती, न कोई साइरन बजता और न ही सुरक्षा का भारी तामझाम रहता। मंत्री बनने के बाद भी वे वैसे ही रहे, जैसे कि पहले थे। उनकी राह में और भी महिलाएं आईं। इनमें से जिस एक को मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूं, वह थीं सांवली व सुडौल सुंदरी ओल्गा टेलिस। इससे सबसे ज्यादा खीझ ‘द ब्लिट्ज’ के रूसी करंजिया को हुई होगी, जिनकी वे मित्र थीं। जॉर्ज फर्नाडीज के अलावा ऐसा दक्षिण भारतीय कौन है, जो बिहार से चुनाव जीत सका? जॉर्ज के अलावा ऐसा कौन है जो अपने से मिले प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित कर सका? अल्जाइमर बीमारी की वजह से उन्हें हजारों दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा होगा। मुझे इस बारे में इसलिए मालूम है क्योंकि देहांत से पहले मेरी पत्नी भी इस रोग से पांच साल तक पीड़ित रही। इससे ग्रस्त व्यक्ति की याददाश्त चली जाती है, वह किसी को पहचान नहीं पाता और फिर धीरे-धीरे गुमनामी के अंधेरों में चला जाता है। इसलिए लैला कबीर और उनके पुत्र ने उन पर अधिकार कर लिया है और पिछले 25 सालों से जॉर्ज की करीबी रही जया जेटली को उन्होंने ‘अवांछनीय’ करार दिया है। सौभाग्य से जॉर्ज फर्नाडीज इस बात से अनजान हैं कि उनके चारों ओर क्या घट रहा है। उर्दू का पुनर्जन्मएक दिन अपनी शाम की महफिल में मैं गालिब की शायरी के उन अंशों को सुना रहा था, जो मेरे दिल के काफी करीब हैं। वाह वाह, इरशाद जैसी पारंपरिक तारीफ पाने के बाद मैंने कहा, ‘इससे बड़ी त्रासदी और क्या होगी कि यह भाषा (उर्दू) उसी देश में मर रही है, जहां इसका जन्म हुआ था।’ मेरे बगल में ही बैठे प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने तत्काल इसका विरोध किया, ‘भाषा कभी मरती नहीं। वह समय के साथ भले ही बदल जाए, लेकिन उसका अस्तित्व कभी खत्म नहीं होता। भारत में उर्दू नहीं, बल्कि वह फारसी लिपि खत्म हो रही है जिसमें इसे आमतौर पर लिखा जाता है। लेकिन अब दूसरी भारतीय भाषाओ में इसका जन्म हो रहा है।’वे बिल्कुल सही हैं। पिछले कुछ सालों में उर्दू शायरी की जितनी किताबें उत्तर भारतीय भाषाओं में प्रकाशित हुई हैं, उतनी तो ब्रिटिश राज के दौरान डेढ़ सौ सालों में भी प्रकाशित नहीं हुई थीं। मैं तो केवल उन्हीं किताबों से अवगत हूं जो पंजाबी, हिंदी और रोमन लिपि में प्रकाशित हुई हैं। जो नाम मेरे दिमाग में आ रहे हैं, उनमें सबसे प्रमुख पंचकूला के टीएन राज और हंसराज कॉलेज दिल्ली के अंग्रेजी के सेवानिवृत्त प्रोफेसर कुलदीप सलिल का है। राज द्वारा गुरमुखी लिपि में गालिब की शायरी के संकलन को मैं १क्क् से भी अधिक बार पढ़ चुका हूं। पिछले ही महीने उर्दू शायरी पर उनकी दो और किताबें आई हैं : हिंदुस्तान ते पाकिस्तान दी बेहतरीन उर्दू हास वियंग शायरी और प्रवीण शाकिर दी चुनिंदा शायरी । दोनों किताबें यूनिस्टार बुक्स ने प्रकाशित की हैं। कुलदीप सलिल की इज्जत मैं एक शिक्षक के रूप में करता हूं। उन्होंने अल्लामा इकबाल और फैज अहमद फैज की शायरी का देवनागरी और अंग्रेजी में अनुवाद किया है। मैंने भी दोनों शायरों के कार्य का कुछ अनुवाद किया है, लेकिन मैं यह देखकर अभिभूत हो गया कि सलिल का अनुवाद मेरे अनुवाद से कितना अलग था। खुशवंत सिंह लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं।

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निज भाषा उन्नति अहै —-डा श्याम गुप्त की कविता …

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भारत के दुर्वल मानव ,
दलित आत्मा के पुतले |
मानस सुत रे अंगरेजों के ,
अंगरेजी के कठपुतले |

पढ़कर चार विदेशी अक्षर ,
तुम अपने को भूल चले |
पतन देख कर तेरे मन का,
मेरे मन में शूल चले |

देख बाह्य सौन्दर्य ,विदेशी
भाषा के गुणगाते हो |
उसे उच्चभाषाकहने में,
बिल्कुल नहीं लजाते हो |

जीभ नहीं गल गिरती है,
हा! कैसे उसे चलाते हो |
आर महा आर्श्चय ,देश द्रोही
क्यों नहीं कहाते हो !

तड़प रही है बिकल आत्मा,
भारत की ,कहती निज जन से |
हमें गुलाम बनाने वाले,
अरे! छुड़ाओ इस बंधन से |

यह भाषा ,इसकी सभ्यता ,
समझो भारत का घुन है |
इसे देख मेरी मानवता ,
कहती यों अपना सिर धुन है |

अंगरेजी कुत्सित छायाएं ,
जो भारत से नहीं हटेंगी |
समझें आने वाली पीढी ,
कभी हमको माफ़ करेंगी |

अरे ! मूढ़ ,मति अंध , राष्ट्र द्रोही
अंत में जाओ भूल |
निज भाषा उन्नति अहै
सब उन्नति कौ मूल ‘ ||