अभिलेख

ताकि लाइव रहे मोहल्ला लाइव

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ताकि लाइव रहे मोहल्ला लाइव
अविनाश दास असमंजस में हैं कि मोहल्ला की गलियां अवरुद्ध तो न हो जाएंगी? कोई चार साल पहले एनडीटीवी में काम करते हुए ब्लागिंग के जरिए इंटरनेट की दुनिया में प्रवेश करनेवाले अविनाश दास इन ब्लाग से उठकर वेबसाइट पर आये और जो जमात उन्होंने मोहल्ला पर विकसित की थी उस जमात के साथ अपने डोमेन पर बहस को जिन्दा रखा. विपक्ष की सास्वत आवाज बनाये रखी.
लेकिन ब्लाग ब्लाग होता है और जब हम अपने डोमेन पर आते हैं तो वह वेबसाइट हो जाती है. और वेबसाइट की रेंज एक हजार रूपये से लेकर एक करोड़ सालाना तक कुछ भी हो सकती है. वैसे तो दूर अमेरिका के एक शहर सैन फ्रांसिस्को में बहस चल रही है कि वेब 2 की दुनिया कैसी होगी लेकिन यहां अपने देश में वेब 1 ही अभी तक आकार नहीं ले सका है. दशक की शुरूआत में जब पूरी दुनिया में इंटरनेट की क्रांति का पहला बबूला फूट रहा था तो भारतीय समाज इंटरनेट से आंखें चार करने को भी तैयार नहीं था. कुछ नामी गिरामी बड़ी कंपनियों ने पैसे जरूर लगाए लेकिन उस वक्त न तो नेट की समझ थी और न ही जरूरत तो जो उस पैसे को पैसे में बदलने में कारगर हो सके. इसी दौर में भारत में गूगल का प्रचार प्रसार बढ़ता है और साथ में आती है ब्लागिंग. ब्लागिंग ने भारतीय समाज में वह काम किया जो बड़ी बड़ी पूंजी नहीं कर सकी थी. उसने पहली बार आम लिखने पढ़नेवाले आदमी को इंटरनेट से जोड़ दिया. अविनाश उसी दौर की पैदाइश हैं.
तब एनडीटीवी की नौकरी थी इसलिए बहस के जज्बे में आर्थिक जरूरतें कभी आड़े नहीं आयी. पहली दफा एक ब्लागर्स मीट में संत नगर में अविनाश मिले थे तो उनकी साफगोई ने आकर्षित किया था. संघ विचारधारा के प्रति उनकी घोषित घृणा उनकी साफगोई का नतीजा थी. उसके बाद उनसे मिलने जुलने का क्रम चलता रहा. कई मौके ऐसे आये जब इंटरनेट की झड़पों में हम दोनों आमने सामने भी खड़े हुए लेकिन जैसे जैसे अविनाश की परतें खुलती गयीं, समझ में आता गया कि उनकी प्रतिभा ही उनके लिए संकट बन गयी है. ऐसा कई दफा हम सबके साथ होता है कि हमारी खूबी ही हमारी खामी बन जाती है. अविनाश अपनी जिन खूबियों के कारण प्रिंट में प्रखर पत्रकार होते थे और टीवी के कारगर हथियार, इंटरनेट की दुनिया में आकर वही खीज पैदा कर देने वाली योग्यता संकट बन गयी. दोस्तों से अधिक दुश्मनों की पैदाइश हो गयी. फिर भी अविनाश ने मोहल्ला को लाइव किया और उसे रोशन किये रखा.
अचानक पिछले दिनों उनका एक मेल उनके उन चाहनेवालों को मिला जो मोहल्ला को सब्सक्राइब करके पढ़ते हैं. कुल जोड़कर दो हजार लोग तो होंगे ही जो या तो मोहल्ला को मेल से पढ़ते हैं या फिर उसकी सामग्री को पसंद करते हैं. इन सबके सामने उन्होंने प्रस्ताव रखा कि अगर आप सौ सौ रूपया महीना दें तो हमें मोहल्ला को जिन्दा रखने में आसानी होगी. अविनाश का आंकलन है कि इन दो हजार लोगों में अगर आधे भी सौ सौ रूपये महीना देते हैं तो इतना पैसा इकट्ठा हो जाता है कि मोहल्ला अपने तेवर और कलेवर के साथ बना रहेगा. जो लोग मोहल्ला पढ़ते हैं उन्हें इस प्रस्ताव पर जरूर विचार करना चाहिए. पिछले दौर में जब टीवी पत्रकारिता से भी पहले केवल प्रिंट का साम्राज्य था तो न जाने कितने आंदोलनमना लोगों ने वैकल्पिक पत्रकारिता की बात की थी. कुछ ने कुछ प्रयोग भी किये थे और कभी फीचर एजंसी शुरू कर दी थी तो किसी ने छोटी मोटी पत्रिका का प्रकाशन कर लिया था. लेकिन जैसे कैंची से पहाड़ नहीं काटा जा सकता वैसे इन छुटपुट प्रयासों से पत्रकारिता को न्याय के रास्ते पर नहीं लाया जा सकता था. इंटरनेट ऐसे लोगों के लिए वरदान साबित होना चाहिए था लेकिन ऐसे लोगों ने भी इंटरनेट की इस ताकत को पहचानने में बहुत रुचि नहीं दिखाई. लेकिन ब्लागिंग ने जो भांति भांति के लोग पैदा किये थे उनमें से कुछ ने सहज ही वैकल्पिक पत्रकारिता का रास्ता अख्तियार कर लिया. अविनाश भी कमोबेश उसी दिशा में हैं.
लेकिन अविनाश को अर्थ का अकाल पड़ गया. एनडीटीवी से भास्कर होते हुए घर बैठ गये. कुछ छुटपुट काम मिल जाए तो काम चल जाता है. ऐसे में उनकी सक्रियता मोहल्लालाइव पर बढ़ती गयी. लेकिन दिक्कत यह है कि आज भारतीय समाज का चरित्र दोगला हो गया है. हम जो होते हुए देखना चाहते हैं उसे होने में अपनी कोई भूमिका नहीं निभाते हैं. संभवत: व्यक्ति के रूप में हमारा व्यक्तित्व आड़े आ जाता है और हम सोचते हैं कि अगर यह हमारे नाम से होता तो ज्यादा अच्छा होता. एक राष्ट्र और समाज होने का दंभ भरनेवाला भारत असल में तो न राष्ट्र बचा है और न ही समाज. व्यक्तिगत स्तर पर हम इतने खिन्न हो गये हैं कि किसी की तरफ चाहकर भी मदद में हाथ नहीं उठा सकते हैं. अपने लोग परायों से ज्यादा पराये नजर आते हैं. धर्मभीरू भारतीय समाज में कोई एक ऐसा सूत्र नहीं बचा है जो लोगों को आपस में जोड़ सकता हो. धर्म के नाम पर होनेवाले धंधे को हम लाखों करोड़ों फण्ड कर देते हैं लेकिन पत्रकारिता में हस्तक्षेप करनेवालों के लिए हमारी जेब से दमड़ी नहीं निकलती. और रोते हैं कि आम आदमी की आवाज पत्रकारिता से गायब हो गयी है. भला कंपनियों से विज्ञापन का पैसा खाकर कोई आपके लिए पत्रकारिता क्यों करेगा? आप हम सबको सोचना ही नहीं समझना होगा कि ऐसे समूह जो इंटरनेट के माध्यम से विकसित हो रहे हैं अपनी पसंद नापसंद के आधार पर उनके साथ जुड़कर उन्हें खड़ा करने की कोशिश करें. सैन फ्रांसिस्को का वेब 2 सम्मेलन चाहे जो कहे भारत में वेब की दुनिया में आम आदमी की आवाज इसी पहल में छिपी होगी. अविनाश को जो भी पढ़ते हों, अगर उन्हें 1200 रुपये साल का चेक भेजते हैं इंटरनेट पर एक ऐसी आवाज को बल मिलेगा जिसका मालिकाना हक आम आदमी के हाथ में होगा. आपके हाथ में होगा. 1200 रुपये सालाना खर्च करके पत्रकारिता के किसी खित्ते पर अपना दावा करना इतना मंहगा सौदा भी तो नहीं है. है क्या