अभिलेख

गीत: एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए… संजीव ‘सलिल’

गीत

एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए…

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याद जब आये तुम्हारी, सुरभि-गंधित सुमन-क्यारी.

बने मुझको हौसला दे, क्षुब्ध मन को घोंसला दे.

निराशा में नवाशा की, फसल बोना चाहिए.

एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए…

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हार का अवसाद हरकर, दे उठा उल्लास भरकर.

बाँह थामे दे सहारा, लगे मंजिल ने पुकारा.

कहे- अवसर सुनहरा, मुझको न खोना चाहिए.

एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए…

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उषा की लाली में तुमको, चाय की प्याली में तुमको.

देख पाऊँ, लेख पाऊँ, दुपहरी में रेख पाऊँ.

स्वेद की हर बूँद में, टोना सा होना चाहिए.

एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए…

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साँझ के चुप झुटपुटे में, निशा के तम अटपटे में.

पाऊँ यदि एकांत के पल, सुनूँ तेरा हास कलकल.

याद प्रति पल करूँ पर, किंचित न रोना चाहिए.

एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए…

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जहाँ तुमको सुमिर पाऊँ, मौन रह तव गीत गाऊँ.

आरती सुधि की उतारूँ, ह्रदय से तुमको गुहारूँ.

स्वप्न में देखूं तुम्हें वह नींद सोना चाहिए.

एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए…

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