अभिलेख

देशी तालिबानी फतवाः गर्ल्स कॉलेजों में नो जींस-नो मोबाइल

लखनऊ. उत्तरप्रदेश डिग्री कॉलेजों के प्रधानाचार्यो की एशोसिएशन ने आज सोमवार को एक बड़ा फैसला करते हुए आगामी 1 जुलाई से शुरु होने वाले सत्र के लिए कॉलेजों में लड़कियों के लिए नया ड्रेस कोड लागू कर दिया है। इस ड्रेस कोड के अनुसार अब कोई भी लड़की कॉलेज में जींस – टी शर्ट पहनकर नहीं आ सकती है तथा अपने साथ मोबाइल फोन भी कॉलेज में नहीं ला सकती है।सभी सरकारी डिग्री कॉलेजो को इस नियम का पालन करना होगा उत्तरप्रदेश डिग्री कॉलेजों के प्रधानाचार्यो के इस नए फैसले को सभी सरकारी डिग्री कॉलेजो में लागू किया जाएगा।क्यों लिया यह फैसलाप्रधानाचार्यो की संस्था ने कहा कि चूंकि प्रदेश में लड़कियों के साथ छेड़छाड़ की घटनाएं लगातार बढ़ रहीं है इसलिए यह फैसला लिया गया है।गौरतलब है कि कुछ समय पहले कानपुर के कुछ कॉलेजों ने भी इसी तरह का फैसला लेते हुए लड़कियों के लिए ड्रेस कोड लागू करते हुए जींस और टी शर्ट पहनने पर रोक लगा दिया था।

क्या लड़कियों के साथ होने वाली छेड़खानी की घटनाओं में उनकी वेशभूषा से फर्क पड़ता है? क्या जींस – टी शर्ट पहनने वाली लड़कियां सलवार शूट पहनने वाली लड़कियों की अपेक्षा छेड़खानी की ज्यादा शिकार होती है? क्या कॉलेज में एक लड़की को मोबाइल फोन ले जाने पर प्रतिबंध लगाना सहीं है? आखिर इस महत्वपूर्ण मसले पर आपकी क्या रॉय है हमें लिख भेजें:
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एक मासूम लड़की का आखिरी ख़त अपने माँ के नाम…उसने क्या क्या नहीं सहा आखिर एड्स ने उसकी जिंदगी तबाह कर दी और बह 12th पास नहीं कर पायी

आज आप लोगों को एक बात बता दूं की की जिस लड़की ने कल आत्महत्या की उससे मैं बहुत प्यार करता था लेकिन वो मुझे नहीं मैंने उसे एक बार बताया की मैं उससे प्यार करता हूँ तो उसने इनकार कर दिया क्योंकि बह तब सिर्फ 16 साल की थी और पड़ने वाली थी ! मैं उसे भूल चुका था लेकिन कल जब यह खबर मेरे कानों मे पड़ी तो दिल रो पड़ा और सोचने पर मजबूर हो गया की बह लड़की ऐसा कर सकती है और क्या इतना कुछ उसके साथ हो सकता है जिसकी दुनिया सिर्फ किताबो तक थी!

इतनी छोटी सी उम्र मे इतना बड़ा कदम,आखिर क्या हो रहा है यह !ये सवाल हर बच्चे से जो अपने सपनो की चाहत मे अपने माता-पिता का दिल और उनके अरमानो को चूर-चूर करते नजर आ रहे है !!ये ही बारदात को पेश करती हिन्दुस्तान का दर्द की एक ख़ास रिपोर्ट!!

ऐसी ही लड़की का एक आखिरी ख़त अपनी माँ के नाम

माँ…………….

माँ मैं आपसे और पापा से बहुत प्यार करती हूँ और आप लोगों को छोड़कर जाने का दिल भी नहीं करता पर क्या करूँ हालत ही कुछ ऐसे हो गए है की मुझे जाना पड़ेगा !माँ मैंने आपसे एक बात छुपायी थी जो अब बताने जा रही हूँ ,वो ये की माँ मैं एक लड़के से बहुत प्यार करती थी ,और मुझे लगता था की बह भी मुझसे प्यार करता है ,पर शयद मैं गलत थी और यही गलती मुझे यहाँ तक ले आई है !माँ एक दिन उस लड़के ने मुझे मिलने के लिए लड़कों के हॉस्टल मे बुलाया तो मैं उससे मिलने के लिए वहा गयी ! उसने पहेले तो दरवाजा बंद किया और फिर बह गलत हरकत करने लगा मैंने मना किया तो बह मुझसे नाराज हो गया..और आप तो जानती है न माँ मैं किसी का दिल नहीं दुखाती क्योंकि आप ही कहती है न की कभी किसी का दिल नहीं दुखाना चाहिए! उस दिन मैंने उसकी बात मान ली !माँ सच उस दिन मुझे बहुत दर्द हुआ पर मैं बहुत खुश थी क्योंकि सौरभ को खुशी मिली थी !! हां माँ उस लड़के का नाम सौरभ ही था!कुछ दिन बाद मुझे पता चला की मैं प्रेग्नेंट हूँ

तो मैं घबरा गयी..मैंने ये बात सौरभ को बताई तो उसने गर्वपात करवा दिया ..माँ मुझे अब बहुत दुःख होता है की इतना सब कुछ आपसे छुपाया पर, मैं क्या बताती आपको की आपकी १७ साल की गुडिया एक बच्चे की माँ बनने वाली है….इतना बताने की हिम्मत नहीं थी मुझमे !!माँ तुम कहती थी न मुझसे की आजकल मैं खुश नही रहती क्या बात है ..हां माँ यही बात थी !!दिल मे कुछ होंसला और जीने की हिम्मत पैदा हुई ही थी की मैं फिर गिर पड़ी ! एक दिन मुझे डॉक्टर ने फ़ोन करके बुलाया यह बही डॉक्टर थी जिसने मेरा बच्चा गिराया था !! मैं वहा गयी तो मुझे पता चला की मुझे एड्स है…जिन्दगी ख़त्म थी!! हां माँ आपकी १७ साल की गुडिया को एड्स हो गया था !

क्योंकि माँ सौरभ को एड्स था

बताओ? माँ क्या ऐसे मे मुझे जीना चाहिए था , नहीं ना माँ!इसलिए आपको छोड़कर जा रही हूँ ! जानती हूँ की आप नाराज हो , बहुत नाराज हो ! पर तो सिर्फ किसी दिल दुखाना नहीं चाहती थी !आप मुझसे बहुत प्यार करती हो ना माँ ,मैं जानती हूँ की हर माँ अपने बच्चे से बहुत प्यार करती है क्योंकि मैं भी तो माँ बन चुकी हूँ ना !माँ तुम चाहती थी और मैं भी चाहती थी की 12th के बाद डॉक्टर बनूँ पर ऐसा नहीं हो सका मुझे माफ़ कर दो!माँ आपके साथ गुजरे १७ साल मेरे लिए सब कुछ है और मैं पापा और भाई से भी बहुत प्यार करती हूँ !माँ अब मैं चलती हूँ हो सके तो मुझे माफ़ कर देना !अच्छा मम्मा बाय- वो रस्सी मेरा इंतज़ार कर रही है!

सेक्सी कपड़े क्यों पहनती हैं महिलाएं..

एक सर्वे के मुताबिक अधिकतर महिलाओं के सेक्सी, तंग या पारदर्शक कपड़े पहनने के पीछे उनके दिल में एक तमन्ना रहती है, वह है अपने करीबियों को अपनी तरफ ज्यादा से ज्यादा खींचना। जी हां सेक्सी कपड़े पहनने के पीछे महिलाओं का मुख्य उद्देश्य ज्यादातर ऑफिस में बॉस के दिल में अपने लिए ज्यादा जगह बनाना होता है।
27 फीसदी महिलाओं ने स्वीकार किया कि प्रमोशन या अधिक बोनस मिलने की इच्छा और बॉस को खुश करने के लिए कम और ज्यादा आकर्षण वाले कपड़े पहनना पड़ता है। इनमें 20 में से 1 महिला तो सेक्सी कपड़े पहनकर नियमति ऑफिस आती हैं और सबकी आंखों में दिनभर आकर्षण का केन्द्र बनी रहती है। सर्वे में भाग लेने वाली लगभग 3 हजार में से 78 फीसदी महिलाओं का मानना है कि सेक्सी वस्त्रों का असर प्रतिदिन के काम-काज पर गहरी छाप छोड़ता है। जबकि 54 फीसदी महिलाओं का मानना है कि इस प्रकार के कपड़ो के पहनने से ऑफिस में काम अच्छे तरीके से संम्पन्न हो जाता है।
इस सर्वे को करने वाली वेबसाइट की फैशन फोरम की प्रवक्ता ने बताया कि आपके ज्यादा आकर्षित और पारदर्शी कपड़े पर आपकी सफलता का केन्द्रबिंदु निश्चित हो जाता है। जबकि 61 फीसदी महिलाओं का मानना है कि सुंदर, आकर्षण और सेक्सी कपड़े पहनने से उन्हें ऑफिस में ज्यादा सम्मान और सहयोग मिलता है। जबकि दूसरी तरफ अब सेक्सी व पारदर्शी कपड़ो से मार्केटिंग व विज्ञापन जगत में ऑफिस फैशन वॉर में अब ज्यादा प्रतिस्पर्धा बढ़ गई
है
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पप्पी झप्पी और नकली जनता, तभी तो इनका काम बनता

पप्पी,झप्पी और नकली जनता तभी तो इनका काम बनता
एक रियलिटी शो मे एक बड़े संगीतकार , गायक, और अभिनेता को एक अन्य संगीत के साथ वास्ता रखने बाले के साथ झगड़ते देखा …लड़की काफी जोर की हुई थी ..माहोल गर्म था मैंने सोचा की अब बह टकला और बेसुरा गायक उस दुसरे गायक से बात भी नहीं करेगा लेकिन २ दिन बाद की दोनों एक जगह स्टेज पर गा रहे थे साथ ही साथ नाच रहे थे ,,मैं इसकी तह मैं गया की आखिर इतने जल्दी सुलह कैसे हो गयी ….पता चला की बह लडाई झूटी मूटी थी ..यह तो शो बालों का ही कारनामा था शो हित करने के लिए ….बात और आगे गयी तो पता चला की जिस एंकर को एक लड़की ने पप्पी ली थी भी झूटी मूटी थी और उस खून चूसने वाले अभिनेता की पप्पी भी सिर्फ एक सैम्पल थी ..हां उसको जो मजा आया था बह असली रहा होगा !!!बात निकली थी तो दूर तक तो जाने ही थी मैं एकः जब ये सब योजना के तहत होता है तो जनता देखने आती ही क्यों है …महाशय हस पड़े कौन सी जनता …वो जनता तो खुद नकली है जो शो देखने के पैसे लेती है ..क्योंकि १ घंटे के शो की रिकॉडिंग मे ८ घंटे लगते है किसी जनता के पास इतना टाइम नहीं होता सो पैसे देकर ही बुलाना पड़ता है …मुझे पता चला की एक बार शो की रिकॉर्डिंग देर तक चली तो नकली दर्शक डबल पैसे मांगने लगे थे !!!एस ऍम एस के फंडे के लिए इस प्रकार की अनोखी हरकतें करनी पड़ती है जो जनता को बेबकूफ बनाती है मैंने एक लड़के को समझाया की यह सब झुट होता है तुम क्यों टाइम बर्बाद कर रह हो ..तो बह बड़ा उछाल कर बोला की मैं भी कौन सा एस ऍम एस करता हूँ मैं भी फर्जी मतलब बिना बैलेंस के ही एस ऍम एस करता हूँ और सबको लगता है मैं एस ऍम एस कर रहा हूँ !!मैंने कहा ठीक भैया एस ऍम एस का फंडा कभी रहता है तेज तो कभी मंदा !!! पर रियलिटी की रियलिटी पर फर्जिपना का बैनर लग चुका है !

संजय सेन सागर

स्कूली बच्चों को पोर्न, ड्रग्स, शराब का चस्का

स्कूली बच्चों को पोर्न, ड्रग्स, शराब का चस्का

नई दिल्लीआज के बच्चे अपनी उम्र के हिसाब से वक्त से पहले ही बड़े होने लगे हैं, इसे पश्चिमी सभ्यता का असर कहें या फिर तथाकथित आधुनिकता की दौड़, दिल्ली के कई टॉप स्कूलों के बच्चे, लड़के हो या लड़कियां पोर्न (अश्लील) फिल्में देखने, ड्रग्स लेने और शराब पीने के मामले में बिल्कुल नहीं झिझकते हैं।
लड़कियों से आगे लड़के
एक निजी हैल्थकेयर कंपनी के प्रमुख मनोचिकित्सक डॉ. समीर पारिख द्वारा किए एक सर्वे में यह चौंकाने वाला खुलासा हुआ है। इस सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक पोर्न साइट देखने और उसे लेकर स्कूल में बातचीत करने के संबंध में 26 फीसदी लड़के मॉड्रेट जबकि 21 फीसदी हाई कैटेगरी में दर्ज हुए।
करीब 24 फीसदी लड़कियां मॉड्रेट जबकि 5 फीसदी हाई कैटेगरी में दर्ज हरुई। यह सर्वे दिल्ली के टॉप स्कूलों के एक हजार बच्चों (541 लड़के और 429 लड़कियों) पर किया गया। सर्वे में ज्यादातर लड़के-लड़कियों ने उन वेब साइट्स को विजिट करने की बात भी कबूली जो उनकी उम्र के लिए बनी ही नहीं थीं।
शराब पीना खुलकर कबूला
इन बच्चों के बीच कभी कभार स्कूल में होने वाली पार्टियों में ड्रग्स का सेवन भी होता रहा है। करीब 36 फीसदी बच्चों ने पार्टियों में ड्रग्स लेने की बात कही। इनमें 23 फीसदी लड़के और 13 फीसदी लड़कियां शामिल थीं। शराब पीने के मामले में 22 फीसदी लड़के माड्रेट जबकि 16 फीसदी हाई कैटेगरी में दर्ज हुए। करीब 60 फीसदी बच्चों ने शराब का सेवन करने की बात खुलकर कही। सर्वे में शामिल 13 से 17 वर्ष आयु वर्ग के ये बच्चे स्कूली परिसर में ही धूम्रपान करने में भी पीछे नहीं थे।

‘समलैंगिक रिश्ते बनाओ, वरना निकाल दूंगा…’

मुंबई। एक ऐसा मैनेजर जो अपने सहयोगियों पर दबाव डालता था उसके साथ समलैंगिक रिश्ते बनाने के लिए। मुंबई के एक ल्टीप्लेक्स थिएटर के असिस्टेंट मैनेजर जो अपने सहयोगियों को देता था धमकी। समलैंगिक रिश्ते बनाओ वरना नौकरी से निकाल दूंगा। उसकी इसी धमकी ने ले ली उसकी जान।
अंधेरी के वर्सोवा इलाके में सोमवार देर रात एक लाश मिली। लाश के गले और पेट पर चाकू के घाव ने यह तो साफ कर दिया की यह एक हत्या का मामला है। लेकिन पुलिस को अब तक इस बात का पता नहीं था की आखिर इस हत्या के पीछे किसका और क्या मकसद हो सकता था।
लाश की तलाशी से पता चला की यह शव वर्सोवा सिनेमैक्स के असिस्टेंट मैनेजर मंदर पाटिल का है। पुलिस पुछताछ के लिए मंदर के ऑफिस पहुंची। यहीं से पुलिस के हाथ इस हत्या के आरोपियों तक पहुंचे। ऑफिस में पुलिस ने कुछ लोगों से पूछताछ की जिसमें 3 लोगों ने अपने जुर्म को कबूले।
सूत्रों के मुताबिक मंदार गिरफ्तार किए गए लोगों को आए दिन समलैंगिक रिश्ते न बनाने पर उन्हें नौकरी से निकाल देने की धमकी दिया करता था। और उसकी इन्ही धमकियों से तंग आकर रची गई उसकी मौत की साजिश।
अपनी साजिश के तहत उन लोगों ने सोमवार की रात मंदार को शराब की दावत के लिए वर्सोवा के आईस फैक्ट्री के पास बुलाया गया जहां पहले तो मंदार को खूब शराब पिलाई गई और उसके बाद उसका कत्ल कर दिया गया ACP वर्सोवा दिलीप सूर्यवंशी ने कहा कि हमें cinemax थिएटर के मैनेजर मंदार पाटिल की लाश मिली और इस मामले में हमने 3 लोगों को गिरफ्तार किया है।
शुरुआती तफ्तीश में भले ही यह सामने आया हो कि समलैंगिक रिश्ते मंदार की मौत की वजह बने। लेकिन पुलिस इस बात से भी इंकार नहीं कर रही कि गिरफ्तार किए गए आरोपियों ने अपने आप को बचने के लिए इस तरह कि मनगढ़ंत कहानी रची हो।
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क्या भड़ास और मोहल्ला लाइव के मालिक बलात्कारी है

क्या भड़ास और मोहल्ला लाइव के मालिक बलात्कारी है 
आज कुछ खोज रही थी तो फिर यादों के पन्नों से कुछ निकल आया..आप भी देखिये  


देश के मशहूर ब्लॉग ”मोहल्ला”के आँगन मे आज एक ऐसे गुनाह की सुनवाई होनी है जो उस मोहल्ले मे मालिक के लिए है! जी हां मोहल्ला ब्लॉग के मालिक अविनाश जी पर एक युवती ने छेड़छाड़ और जबरदस्ती का आरोप लगाया है इससे पहेले इसी तरह के एक केस मे ”भड़ास ब्लॉग” के मालिक यशवंत को भी अदालत की दावत मे शरीक होना पड़ा था उन पर भी बलात्कार का आरोप है !!मुद्दा यहाँ पर यह बनता है की आज क्या ब्लोग्गरों को अबनी इज्जत की जरा भी फ़िक्र नहीं है या फिर अगर यह एक षडयंत्र है तो आखिर कब तक इसमें फसकर हम यूँ ही बदनाम होते रहेंगे!इसी दिशा मे अविनाश का एक पत्र और एक बह केश जो भड़ास के यशवंत जी से समबंदित है,जिससे मोहल्ला के संपादक अविनाश ने अपने ब्लॉग पर जगह दी थी और साथ ही साथ खूब हो हल्ला भी मचाया था! तो तय कीजिये आप लोग की यहाँ क्या सच है और क्या झूठ


क्या सचमुच एक झूठ से सब कुछ ख़त्म हो जाता है?
मुझ पर जो अशोभनीय लांछन लगे हैं, ये उनका जवाब नहीं है। इसलिए नहीं है, क्‍योंकि कोई जवाब चाह ही नहीं रहा है। दुख की कुछ क़तरने हैं, जिन्‍हें मैं अपने कुछ दोस्‍तों की सलाह पर आपके सामने रख रहा हूं – बस।मैं दुखी हूं। दुख का रिश्‍ता उन फफोलों से है, जो आपके मन में चाहे-अनचाहे उग आते हैं। इस वक्‍त सिर्फ मैं ये कह सकता हूं कि मैं निर्दोष हूं या सिर्फ वो लड़की, जिसने मुझ पर इतने संगीन आरोप लगाये। कठघरे में मैं हूं, इसलिए मेरे लिए ये कहना ज्‍यादा आसान होगा कि आरोप लगाने वाली लड़की के बारे में जितनी तफसील हमारे सामने है – वह उसे मोहरा साबित करते हैं और पारंपरिक शब्‍दावली में चरित्रहीन भी। लेकिन मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं और अभी भी कथित पीड़‍िता की मन:स्थिति को समझने की कोशिश कर रहा हूं।मैं दोषी हूं, तो मुझे सलाखों के पीछे होना चाहिए। पीट पीट कर मुझसे सच उगलवाया जाना चाहिए। या लड़की के आरोपों से मिलान करते हुए मुझसे क्रॉस क्‍वेश्‍चन किये जाने चाहिए। या फिर मेरी दलील के आधार पर उसके आरोपों की सच्‍चाई परखनी चाहिए। लेकिन अब किसी को कुछ नहीं चाहिए। कथित पी‍ड़‍िता को बस इतने भर से इंसाफ़ मिल गया कि डीबी स्‍टार का संपादन मेरे हाथों से निकल जाए।दुख इस बात का है कि अभी तक इस मामले में मुझे किसी ने भी तलब नहीं किया। न मुझसे कुछ भी पूछने की जरूरत समझी गयी। एक आरोप, जो हवा में उड़ रहा था और जिसकी चर्चा मेरे आस-पड़ोस के माहौल में घुली हुई थी – जिसकी भनक मिलने पर मैंने अपने प्रबंधन से इस बारे में बात करनी चाही। मैंने समय मांगा और जब मैंने अपनी बात रखी, वे मेरी मदद करने में अपनी असमर्थता जाहिर कर रहे थे। बल्कि ऐसी मन:स्थिति में मेरे काम पर असर पड़ने की बात छेड़ने पर मुझे छुट्टी पर जाने के लिए कह दिया गया।ख़ैर, इस पूरे मामले में जिस कथित क‍मेटी और उसकी जांच रिपोर्ट की चर्चा आ रही है, उस कमेटी तक ने मुझसे मिलने की ज़हमत नहीं उठायी।मैं बेचैन हूं। आरोप इतना बड़ा है कि इस वक्‍त मन में हजारों किस्‍म के बवंडर उमड़ रहे हैं। लेकिन मेरे साथ मुझको जानने वाले जिस तरह से खड़े हैं, वे मुझे किसी भी आत्‍मघाती कदम से अब तक रोके हुए हैं। एक ब्‍लॉग पर विष्‍णु बैरागी ने लिखा, ‘इस कि‍स्‍से के पीछे ‘पैसा और पावर’ हो तो कोई ताज्‍जुब नहीं…’, और इसी किस्‍म के ढाढ़स बंधाने वाले फोन कॉल्‍स मेरा संबल, मेरी ताक़त बने हुए हैं।मैं जानता हूं, इस एक आरोप ने मेरा सब कुछ छीन लिया है – मुझसे मेरा सारा आत्‍मविश्‍वास। साथ ही कपटपूर्ण वातावरण और हर मुश्किल में अब तक बचायी हुई वो निश्‍छलता भी, जिसकी वजह से बिना कुछ सोचे हुए एक बीमार लड़की को छोड़ने मैं उसके घर तक चला गया।मैं शून्‍य की सतह पर खड़ा हूं और मुझे सब कुछ अब ज़ीरो से शुरू करना होगा। मेरी परीक्षा अब इसी में है कि अब तक के सफ़र और कथित क़ामयाबी से इकट्ठा हुए अहंकार को उतार कर मैं कैसे अपना नया सफ़र शुरू करूं। जिसको आरोपों का एक झोंका तिनके की तरह उड़ा दे, उसकी औक़ात कुछ भी नहीं। कुछ नहीं होने के इस एहसास से सफ़र की शुरुआत ज़्यादा आसान समझी जाती है। लेकिन मैं जानता हूं कि मेरा नया सफ़र कितना कठिन होगा।एक नारीवादी होने के नाते इस प्रकरण में मेरी सहानुभूति स्‍त्री पक्ष के साथ है – इस वक्‍त मैं यही कह सकता हूं।

यशवंत, हिंदी ब्लॉगिंग की दरअसल एक शैतान कथा!
अभी अभी (11:32 AM पर) कविता कृष्‍णन से बात हुई। कविता ने बताया कि यशवंत ने पीड़‍ित लड़की को आज सुबह एक एसएमएस किया है। एसएमएस का मजमून है: भगवान ही जानता है कि मैंने कोई ग़लती नहीं की। तुम अपना और अपने परिवार का ख़याल रखो। लड़की डरी हुई है। यह भाषा शातिर धमकी से भरी हुई है। हमें इसका विरोध करना चाहिए और और इस शैतान आदमी के बेकाबू मनोबल को तोड़ने के बारे में सोचना चाहिए।
इन दिनों एनडीटीवी की रात्रिकालीन सेवा का सिपाही हूं। शनिवार की दोपहर नींद खुली, तो कभी हमारे अजीज़ रहे रंजन श्रीवास्‍तव के कुछ मिस्‍ड कॉल थे। जागरण से यशवंत को निकाले जाने के बाद इन्‍हीं रंजन ने यशवंत को अपनी कंपनी में ठौर दिया। लेकिन मित्रता में घात के पुराने शौकीन यशवंत उनकी कंपनी को आगे बढ़ाने के काम नहीं आये। अपनी एक नयी कंपनी और करोड़ों की कमाई के बारे में सोचते रहे। रंजन ने वक्‍त रहते सलाम-नमस्‍ते कह दिया और यशवंत को अपनी कंपनी के बारे में और अधिक कायदे से योजना बनाने की फ़ुर्सत दे दी।रंजन को मैंने कॉल बैक किया। उन्‍होंने जो ख़बर सुनायी, उसने मुझे हैरान तो नहीं किया, दुखी ज़रूर किया। इसके बाद नींद की तमाम कोशिशों के बावजूद वो मुझसे दूर ही रही।शाम में रवीश का एसएमएस आया, जो आम तौर पर हर शाम को आता है। ‘जगे हैं क्‍या?’ उनसे सैंड ऑफ द आई पर एक आलेख, जिसमें रवीश का यूं ही बेवजह ज़‍िक्र किया गया था, के बारे में ख़बर मिली। इस ब्‍लॉग के मेंबर कभी यशवंत भी थे। रवीश ने ये भी कहा कि आलेख पर किसी कठपिंगल का एक कमेंट है यशवंत के बारे में। मैंने देखा कि वो टिप्‍पणी रंजन की ख़बर को तस्‍दीक़ कर रही थी। रवीश से मैंने कहा कि हम सिर्फ़ अफ़सोस ज़ाहिर कर सकते हैं। अफ़सोस तो इस बात का ज़्यादा था कि उस टिप्‍पणी पर सैंड ऑफ द आई के लेखक-पाठक पूरी तरह ख़ामोश थे, हैं। जबकि मसला स्‍त्री के सम्‍मान पर हमले से जुड़ा था।ख़ैर, सब देख-सुन कर हमने फिर सोने की कोशिश की और नींद अब भी नहीं आयी। साढ़े दस बजे रात, जब दफ़्तर जाने से पहले शेव करने के लिए ठोढ़ी पर झाग फैला रहा था, कविता का फोन आया। उन्‍होंने मुझसे पूछा कि आपको पता है कि यशवंत नाम के एक आदमी ने, जो ‘शायद’ ब्‍लॉगिंग वगैरा भी करता है, उसने किस तरह का कृत्‍य किया है। मैंने कविता से कहा, कुछ-कुछ ख़बर तो मिल रही है, लेकिन सच्‍चाई के सीक्‍वेंस में वो ढल नहीं पा रही। अब तक मैं इसे गॉशिप का हिस्‍सा मान रहा हूं, आप जो जानती हैं – मुझे बताइए। फिर कविता ने पूरी घटना तफसील से बतायी।
यशवंत ने पार्टी के एक साथी की बेटी से बलात्‍कार की कोशिश की। कभी थोड़ा वक्‍त पार्टी में गुज़ारने के चलते यशवंत से पार्टी कॉमरेड की दोस्‍ती हो गयी थी। आमतौर पर दोस्‍ती में भरोसे का ही सहारा होता है। इसी भरोसे की रोशनी में वो साथी यशवंत के कहने पर दिल्‍ली आये और उनके घर रुके। उनकी बेटी भी दिल्‍ली में काम की तलाश में पिता के साथ चली आयी थी। शुक्रवार की सुबह यशवंत ने दोस्‍त की बेटी को अकेला पाकर उससे अश्‍लील हरकत करनी शुरू कर दी। विरोध करने पर यशवंत ज़बर्दस्‍ती पर उतर आये, तो किसी तरह धक्‍का देकर लड़की घर से बाहर निकल आयी। उसके पास पैसे नहीं थे। उसने पीसीओ बूथ वाले से रिक्‍वेस्‍ट करके लखनऊ कॉल किया। वहां से कविता कृष्‍णन का नंबर लिया और उन्‍हें फोन करके अपना हाल बयान किया। कविता पहुंची और उसे अपने साथ ले गयी। न्‍यू अशोकनगर थाने में एफआईआर नंबर 184 के तहत धारा 354 का मुक़दमा दर्ज किया गया। पुलिस यशवंत को पकड़ कर थाने ले आयी। चूंकि धारा बलात्‍कार की कोशिश का था, दूसरी सुबह कोई दोस्‍त उन्‍हें ज़मानत पर छुड़ा कर ले गया। अब मुक़दमा चलते रहना है और अदालत के कठघरे में यशवंत को अभी बार-बार आना है।रात करीब 12 बजे दफ़्तर पहुंचा, तो इरफ़ान का मेल इनबॉक्‍स में पड़ा था, ‘मित्र भड़ासाधिराज के बारे में ये ख़बर क्‍या है?’ मैंने इरफ़ान के दिये लिंक पर जाकर देखा, तो वही ख़बर थी, जो सैंड ऑफ द आई पर टिप्‍पणी के रूप में जारी की गयी थी। लेकिन इस लिंक पर यशवंत की टिप्‍पणी भी मौजूद थी, ‘शुक्रिया, मेरी तारीफ़ करने के लिए। आप जैसे लोगों के चलते ही मेरी ख्याति-कुख्याति दिन ब दिन बढ़ रही है। आपने तो मेरे ख़‍िलाफ लिखने के लिए एक ही दिन में पूरा का पूरा ब्लाग बना डाला और उसकी पहली पोस्ट में मेरे खिलाफ जम कर भड़ास निकाली। चलिए, आप जो कुछ कह रहे हैं, उसकी एक-एक लाइन को मैं सच मान ले रहा हूं। अब आप खुश! यशवंत।’ एक ख़ास किस्‍म की नाटकीयता के साथ सच को स्‍वीकार करके यशवंत इस टिप्‍पणी में ये प्रदर्शित करना चाह रहे हैं, जैसे ख़बर झूठी हो। लेकिन ख़बर सच्‍ची है और सौ फ़ीसदी सच्‍ची है।यशवंत मेरे दोस्‍त कभी नहीं रहे। रंजन श्रीवास्‍तव ने उनसे एक बार हमारा तआरुफ करवाया। उनमें एक भदेस किस्‍म की मौलिकता मुझे दिखी – लेकिन उस मौलिकता की चादर इतनी मैली होगी – छोटी-बड़ी चंद घटनाओं के बाद अब इस बात का पूरा एहसास मुझे है। उनके पास कोई विचार भी नहीं कि वैचारिक ज़मीन के एक दूसरे के विपरीत छोर पर खड़े होने के बावजूद हम संवाद के दोस्‍ताना ड्रामे की स्क्रिप्‍ट लिखते रहें। बहरहाल, मैं कोई अभय तिवारी नहीं हूं कि दोस्‍त के धृतकर्मों का बचाव सिर्फ़ इसलिए करूं कि वो दोस्‍त है। इसलिए, एतद् द्वारा ये एलान करता हूं कि यशवंत नाम के शख्‍स से अब मेरे कोई संबंध नहीं हैं। जिन परिस्थितियों में रिश्‍ते बने थे, मैं उन परिस्थितियों के लिए ग्‍लानि का अनुभव कर रहा हूं।
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फिर आ सकता है हिंद्स्तान पर खतरा , फिर बह सकती है खून की नदिया…अबकी बार जो हमला होगा बह इससे भी भयानक हो सकता है एक रपट

फिर आ सकता है हिंद्स्तान पर खतरा , फिर बह सकती है खून की नदिया…अबकी बार जो हमला होगा बह इससे भी भयानक हो सकता है एक रपट
देश में आतंकी हमलों का खतरा अभी टला नहीं है। अगर सुरक्षा एजेंसियों की मानें तो अगले महीने की 13 तारीख को देश में एक बार फिर आतंकी हमला हो सकता है। यह आशंका मई से नवंबर तक हुए हमलों के विश्लेषण के आधार पर जताई जा रही है।
मुंबई क्राइम ब्रांच के एक अधिकारी ने यह आशंका जताते हुए कहा कि बीते छह माह में आतंकियों ने कई हमले किए हैं। इनमें यह खास बात रही कि हर हमला पहले हमले के एक माह बीतने के बाद और खास चिन्हित तारीखों पर किया गया। अब तक ये तारीखें 13 या 26 रही हैं। इसी आधार पर आशंका जताई जा रही है कि अगला आतंकी हमला 13 जनवरी 2009 को हो सकता है।
अगर एक बार फिर जानकारी होते हुए भी पुलिस सोती रही तो इसे हम क्या समझेंगे हिन्दुस्तान की सेना से आग्रह है की सुरक्षा बरते और मासूमों की जान से खिलवाड़ न करे !~

पाक मीडिया का पलटवारः हिन्दुओं ने कराया मुंबई पर हमला

27 नवंबर की सुबह अखबारों में एक फोटो छपी थी जो अजमल आमिर कसाव की थी. कसाब जिस हाथ में एक-47 लेकर आगे बढ़ रहा था उस हाथ में रक्षा सूत्र बंधा हुआ था. वही रक्षासूत्र जो आमतौर हिन्दू तीर्थों में भक्तों के हाथ में बांध दिया जाता है. हो सकता है उस दिन यह बात किसी ने नोटिस नहीं की लेकिन पाकिस्तान मीडिया ने पलटवार करने के लिए उसी तर्क को सामने रख दिया है.

दो दिन पहले टाईम्स आफ इंडिया के टीवी चैनल टाईम्स नाऊ से बात करते हुए जीओ टीवी के मुखिया हामिद मीर ने कहा कि आप पाकिस्तान पर आरोप कैसे लगा सकते हैं. और अगर भारत पाकिस्तान पर आरोप लगाता है तो उसकी विश्वसनीयता क्या होगी? थोड़े समय पहले समझौता एक्सप्रेस में हुए विस्फोट के लिए पाकिस्तान के लोगों को जिम्मेदारा ठहराया गया था लेकिन अब आप ही कह रहे हैं कि आपकी सेना के एक कर्नल ने इसे अंजाम दिया.” टाईम्स नाऊ के तेज-तर्रार संपादक अर्णव गोस्वामी के पास कोई जवाब नहीं था. उनके साथ बैठी एंकर ने बात पलट दी.
पाकिस्तान प्रायोजित इस आतंकी हमले को लेकर भारतीय मीडिया ने जिस तरह की नादानी दिखाई है उसका नतीजा है कि खुल्लम-खुल्ला हर सबूत होने के बाद भी भारत को एक पक्ष बना दिया. मसलन पाकिस्तान के कराची से बोट आयी, सेटेलाईट फोन से पाकिस्तान में बात हुई, उनके साथ जो सामान बरामद हुआ है उनमें से अधिकांश मेड इन पाकिस्तान हैं. और सब तो छोड़िये जो कसाब पकड़ा गया है वह चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा है कि वह पाकिस्तान से आया है. इस काम के लिए उसे डेढ़ लाख रूपये दिये गये हैं. वह उनके भी नाम बता रहा है जिन्होने उसे इस काम के लिए ट्रैनिंग दी है. फिर भी भारतीय मीडिया ने जिस तरह से अतहीन नादानियां की हैं उसने पाकिस्तानी मीडिया को मौका दे दिया है कि वह कह सके कि भारतीय मीडिया जानबूझकर पाकिस्तान का नाम घसीट रहा है.
पाकिस्तान न्यूज वन चैनल ने एक कार्यक्रम बनाया- इफ्तिलाफ है. यानी मुझे ऐतराज है. इस चैनल का क्या एतराज है? वह कहता है कि “इनकी शक्लें हिन्दुओं जैसी हैं. जिस जबान में गुफ्तगू कर रहे हैं वो जबान कोई पाकिस्तानी इस्तेमाल नहीं करता है.” कार्यक्रम के संचालक जैयद हामिद इस घटना को भारत द्वारा प्लान की गयी एक खतरनाक योजना बताते हुए आगे कहते हैं कहते हैं” 9/11 ने जो कि अमेरिका ने किया था उसको बहुत खूबसूरती से प्लान किया था. उन्होंने मीडिया में परसेप्शन मैनेजमेन्ट बहुत अच्छा किया. इंडियन्स ने वही गेम रीपिट करने की कोशिश की. लेकिन अक्ल तो है नहीं. इन अहमकों ने कम्प्लीट डिजास्टर किया इसे हैंडल करने में.”

पाकिस्तानी मीडिया में यह बहस तेज है कि भारत में हिन्दू चरमपंथी और सरकार दोनों ही मालेगांव विस्फोट में गिरफ्तार सेना के कर्नल को बचाना चाहते हैं. इसलिए उस घटना की जांच को प्रभावित करने के लिए उन्होंने एटीएस चीफ को भी हत्या करवा दी ताकि मालेगांव विस्फोट की जांच खत्म हो जाए.
पाकिस्तान में मीडिया के एक खित्ते द्वारा इस तरह से प्रतिक्रिया देना कोई अनाहोनी नहीं है. राष्ट्रपति जरदारी कह रहे हैं कि भारत पर जो आतंकी हमला हुआ है वह उनका काम है जो पूरे दक्षिण एशियाई देशों में आतंक फैला रहे हैं. जरदारी इन आतंकियों “स्टेटलेस एक्टर” बता रहे हैं. जाहिर है जरदारी इस मुश्किल वक्त में ज्यादा संतुलित रवैया अपना रहे हैं. वे इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि पाकिस्तान के लोग इस हमले में शामिल हैं. अब ऐसे में एक ही रास्ता बचता है कि पाकिस्तान सरकार उन चरमपंथी तत्वों के खिलाफ भारत के साथ मिलकर अभियान चलाए जो न केवल भारत बल्कि पाकिस्तान के लिए भी खतरा हैं. अलकायदा के कमाण्डर अब खुलेआम टीवी पर बयान देने लगें है कि वे पेशावर पर कब्जा कर लेंगे और इंशाअल्लाह जरूरत हुई तो और भी इलाके उनके कब्जे में होंगे.
साफ है पाकिस्तानी प्रशासन खुद एक ऐसे भंवर में है जहां से उसके बच निकलने की संभावनाएं क्षीण होती जा रही हैं. ऐसे में वह खुलेआम पाकिस्तान में बैठे आतंकियों और चरमपंथी संगठनों का लंबे समय तक समर्थन नहीं कर सकता. अगर वह ऐसा करता है तो पाकिस्तान ऐसे टीले में तब्दील हो जाएगा जहां मध्ययुग के दर्शन होंगे. पाकिस्तान में मीडिया का एक हिस्सा ऐसा भी है जो इस मध्ययुग के दर्शन को इस्लाम की जीत मानता है. लेकिन बड़ा हिस्सा ऐसी किभी भी भयावह स्थिति में जाने से बचना चाहेगा. कम से कम भारतीय मीडिया दस साल पहले के उस पूर्वाग्रह से निकलकर रिपोर्ट करना चाहिए जिसमें हर हमले के लिए पाकिस्तान को दोषी करार दे दिया जाता था. तब ऐसा था भी. उन दिनों आईएसआई ही आतंकी सत्ता का संचालन करती थी. लेकिन अब आईएसआई कितनी ताकतवर है इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि मैरियेट होटल में विस्फोट के बाद उसके मुखिया को रातों-रात बदल दिया गया और विरोध का कहीं कोई स्वर सुनाई नहीं दिया.
परिस्थितियां बदल गयी हैं. पाकिस्तान कल तक जिस हिंसा को पनाह देता रहा है आज वह हिंसा उसके अपने गले की फांस बन गया है. ऐसे में वक्त का तकाजा है कि भारत पाकिस्तानी सरकार के साथ मिलकर आतंकवाद के खिलाफ अभियान चलाए न कि पाकिस्तानी सरकार के खिलाफ. ठीक वैसे ही जैसे पाकिस्तान के साथ मिलकर अमेरिका कर रहा है.

मीडिया का नया मंत्रः आतंकवाद

ढहते किलों के बीच इलेक्ट्रानिक मीडिया को नया मंत्र मिल गया है. वह मंत्र है- आतंकवाद. आतंकवाद से इस लड़ाई में मीडिया सीधे जनता के साथ मिलकर मोर्चेबंदी कर रहा है. यह मोर्चेबंदी अनायास नहीं है और ऐसा भी नहीं है कि अचानक ही इलेक्ट्रानिक मीिडया नैतिक रूप से बहुत जिम्मेदार हो गया है. कारण दूसरे हैं जो कि उसकी व्यावसायिक मजबूरियो से जोड़ते हैं. वैश्विक मंदी के इस दौर में आतंकवाद ही एक ऐसा मंत्र है जो ज्यादा देर तक दर्शकों को बुद्धूबक्से से जोड़कर रख सकता है. इलेक्ट्रानिक मीडिया इस मौके को किसी कीमत पर नहीं चूकना चाहता.

अगर आप पिछले साल भर का डाटा उठाकर देख लें तो इलेक्ट्रानिक मीडिया ने हमेशा छोटी-छोटी बातों का बतंगड़ बनाया है. अभी हाल में मुंबई में राज ठाकरे का आतंक टीवी पर खूब बिका. राज ठाकरे के गुण्डों ने जो कुछ किया वह शर्मनाक था लेकिन इतना भी नहीं था जितना इलेक्ट्रानिक मीडिया ने हौवा बनाया. टीवी पर आयी खबरों को देखकर हमने अपने एक मित्र को फोन किया कि आपको इस बारे में कुछ लिखना चाहिए. उन्होंने छूटते ही जवाब दिया ऐसा कुछ है ही नहीं जैसा टीवी में दिखाया जा रहा है तो इसमें लिखने जैसा क्या है. उनका कहना था टीवी जो कुछ दिखा रहा है उससे आगे बहुत कुछ हो सकता है. और वही हुआ. इस घटना के पहले दिल्ली में विस्फोट हुआ था. कोई पंद्रह दिन तक लगातार इलेक्ट्रानिक मीडिया जांचकर्ता बनने का नाटक करता रहा. हिन्दी के एक चैनल आज तक ने बाकायदा दिल्ली में प्रचार अभियान चलाया, किराये पर बड़े-बड़े होर्डिंग लगवाये जिसमें लिखा गया था कि आतंकवाद के खिलाफ इस लड़ाई में हमारा साथ दीजिए. लोगों ने कितना साथ दिया मालूम नहीं लेकिन उस प्रचार अभियान को देखकर लगा कि इलेक्ट्रानिक चैनल खबर दिखाने के अलावा भी बहुत कुछ कर सकते हैं. दिल्ली-मुंबई में हई आतंकी घटनाओं से थोड़ा और पहले जाए तो आरूषि हत्याकाण्ड मीडिया के लिए संजीवनी का काम कर रहा था. आरूषि और आतंकवाद के बीच राम की रामायण और रावण की लंका ने भी कुछ दिनों तक इलेक्ट्रानिक मीडिया की टीआरपी बनाये रखी.

आम आदमी को यह सब क्यों बुरा लगे? अगर मीडिया उसके हक और हित की बात करता है तो उसको खुश होना लाजिमी है. कुछ हद तक संतुलित प्रिंट मीडिया भी कई बार इलेक्ट्रानिक मीडिया की इस बाढ़ में उसके साथ बह जाता है. इस बार मुंबई में आतंकी हमले के बाद प्रिंट जहां संतुलित व्यवहार कर रहा है वही इलेक्ट्रानिक मीडिया अपने स्वभाव के अनुसार एक बार फिर अपनी ही धारा में बह निकला है. ६२ घण्टों तक लाईव मैराथन कवरेज दिखाने के बाद जब पत्रकार बिरादरी अपने स्टूडियो लौटी तो उसने देश के राजनीतिज्ञों को निशाने पर ले लिया है. मीडिया इतना तुर्श है कि उसके हाथ में गनमाईक की जगह अगर गन हो तो वह खुद फैसले करना शुरू कर दे और अपना राज स्थापित कर दे. मसलन हर एंकर बोलते समय इस बात का जरा भी ध्यान नहीं रखता कि वह क्या बोल रहा है. सरकार के तलवे चाटनेवाले उसके संपादकों और मालिकों की बात अभी छोड़ देते हैं जिसकी दी गयी सैलेरी पर पत्रकार अपना परिवार पालता है. उनकी ही बात करते हैं जो गनमाईक लिए स्टूडियो से लेकर बाहर मैदान तक एक बाईट के लिए भागते रहते हैं वे आखिर किस रणनीति के तहत आतंकवाद को भयानक समस्या बता रहे हैं? वे राजनीतिक प्रक्रिया, प्रशासनिक क्षमता पर सवाल उठाने की बजाय उसे खारिज क्यों कर रहे हैं? वे ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं मानों वे ही देश के लोकतांत्रिक ढांचे में चुनकर वहां तक पहुंचे है?
एनडीटीवी का उदाहरण लीजिए. कोई शक नहीं कि इनके कोई आधा दर्जन पत्रकारों ने मुंबई जाकर लाईव रिपोर्टिंग की और ‘पल-पल’ की खबरें हम तक पहुंचाकर बहुत महान काम किया है. लेकिन अब वह क्या कर रहा है? आतंकवाद और आम आदमी के बीच वह एक पक्ष बन गया है. लगता है एनडीटीवी को ऐसा एहसास हो गया है कि वह चुनाव लड़े तो ज्यादा बेहतर सरकार दे सकता है. इसलिए वह एक मीडिया घराने की बजाय किसी राजनीतिक दल की तरह व्यवहार कर रहा है और सवाल उठाने की बजाय निर्णय सुनाने के काम में लग गया है. आज शाम भाजपा के नेता अरूण जेटली ने कहा भी कि बेहतर हो कि “आप (एनडीटीवी) पत्रकारिता ही करें और आतंकवाद के खिलाफ मीडिया की भूमिका में ही रहे.” लेकिन एनडीटीवी भला ऐसा क्यों करेगा? इस समय उन्माद का माहौल है. जो आतंकवादी घटना हुई है उससे पूरा देश सकते में है.(हालांकि यह बात मैं पूरे यकीन से नहीं लिख रहा हूं, क्योंकि मेरी लोगों से फीडबैक अलग है) फिर भी मीडिया ने इतनी सनसनी तो पैदा कर ही दी है ६२ घण्टों का लाईव कवरेज भारत के शहरों में चर्चा का विषय बन गया है. आज टाईम्स आफ इंडिया ने लिखा है मुंबई कल दिनभर केवल आतंकी मुटभेड़ की ही बातें करती रही. मुंबई ही क्यों, यहां दिल्ली में भी लोग दिन-रात टीवी से चिपके रहे. इसलिए नहीं कि उनकी बड़ी सहानुभूति थी बल्कि इसलिए कि अधिकांश लोग क्लाईमेक्स जानना चाहते थे.
यह इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए बहुत अनुकूल माहौल होता है जब मिनट-दर-मिनट लोग उससे बंधने को मजबूर हों. फिर मौका चाहे जो हो. या तो कोई बच्चा खड्ड में गिर जाए या फिर आतंकवादियों के खिलाफ एक लंबी मुटभेड़ चल जाए. लाईव फुटेज और कवरेज के ऐसे स्रोत इन मौकों पर फूटते हैं जो इलेक्ट्रानिक मीडिया को अनिवार्य जरूरत बना देते है. यहां तक तो हुई जरूरत की बात. अब यहां से इलेक्ट्रानिक मीडिया व्यवसाय जगत में प्रवेश कर जाता है.
अगर आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में मीडिया इतना ही ईमानदार होता तो बीच में विज्ञापनों का ब्रेक न चलाता. अगर आतंकवाद के खिलाफ इलेक्ट्रानिक मीडिया इतना ही ईमानदार होता तो चिल्ला-चिल्लाकर अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने की दुहाई न देता. अगर असल मुद्दा आतंकवाद है तो फिर चैनलों के ब्राण्डों पर असली पत्रकारिता की अलाप क्यों लगायी जाती है? क्यों टीवी के नौसिखिए लड़के/लड़कियां हमेशा अपने ब्राण्ड द्वारा ही सच्ची पत्रकारिता करने की दुहाई देते रहते हैं? क्यों टीवी वाले यह बताते हैं कि उन्हें इस मुद्दे पर इतने एसएमएस मिले हैं जबकि एक एसएमएस भेजने के लिए उपभोक्ता की जेब से जो पैसा निकलता है उसका एक हिस्सा टीवी चैनलों को भी पहुंचता है. इन सारे सवालों का जवाब यही है कि आखिरकार टीवी न्यूज बहुत संवेदनशाली धंधा है. और जिन पर इस बार हमला हुआ है वे भी धंधेवाले लोग हैं. एक धंधेबाज दूसरे धंधेबाज के लिए गला फाड़कर नहीं चिल्लाएगा तो क्या करेगा? आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के उनके मंसूबे तब दगा देने लगते हैं जब पता चलता है कि जिस चैनल की टीआरपी बढ़ी उसने अपनी विज्ञापन दर बढ़ा दी. है कोई चैनलवाला जो इस बात से इंकार कर दे?