अभिलेख

शिक्षा का अंतहीन तमाशा

कमाल है ना, नए एचआरडी मंत्रीजी आए नहीं कि ढिंढोरा पीटना शुरू कर दिया। इसको बदलो, उसको बदलो। बोर्ड के एक्जाम हटा दो, यूजीसी हटा दो, नई रेग्यूलेटरी बॉडी बना दो, 100 दिन में यशपाल कमेटी को लागू कर दो। ऐसा शोर मच रहा है कि पता नहीं हायर एजुकेशन का क्या उद्धार होने वाला है। हलचल जरूर है, लेकिन क्या कोई सही मुद्दा समझ रहा है?

एक बात पर सबके कान खड़े हो गए। जबरदस्त बहस छिड़ गई। मंत्रीजी ने फरमाया कि क्लास टेंथ यानी दसवीं के बोर्ड एक्जाम खत्म कर दो। बोर्ड एक्जाम से कोई फायदा तो होता नहीं, उलटे स्टूडेंट्स पर स्ट्रेस पड़ता है। दिलो दिमाग पर इतना बोझ और तनाव डालने की भला क्या जरूरत। (मजे की बात यह कि स्ट्रेसफ्री या तनावरहित शिक्षा बड़ी चलन में है आजकल।
गोया कि लोग अपने बच्चों के लिए स्कूल नहीं चाहते, बल्कि स्पा या आश्रम चाहते हैं।) इधर मंत्रीजी ने फरमाया और उधर देखते ही देखते ही मीडिया की बांछें खिल गईं। उसने मंत्रीजी की बात को फौरन लपक लिया। एक के बाद स्टोरीज आने लगीं। ऐसा होगा तो क्या होगा, वैसा होगा तो क्या होगा। हर कोण से उलटपुलटकर देखा जाने लगा। मुझे भी एक टीवी शो का न्यौता मिला। बताइए इस मसले पर आपके क्या विचार हैं, आप बोर्ड एक्जाम खत्म करने के हक में हैं या इसके खिलाफ हैं।
असली मुद्दा यह नहीं कि बोर्ड एक्जाम से बच्चों के दिमाग पर बोझ पड़ता है। बात यह है कि बोर्ड एक्जाम में असाधारण रूप से अच्छा प्रदर्शन करने का दबाव ही है जिसकी वजह से स्टूडेंट लगातार चिंता में घुलता रहता है, क्योंकि उसने अच्छे नंबर हासिल नहीं किए तो उसे किसी बेहतर कॉलेज में दाखिला नहीं मिल सकता। हां, यह बात सही है कि कॉलेज में दाखिला बारहवीं की एक्जाम पास होने के बाद ही मिलता है, लेकिन दसवीं के बोर्ड एक्जाम को अक्सर शुरुआती संकेत के तौर पर देखा जाता है।
हालांकि दसवीं बोर्ड एक्जाम खत्म करने से भी ज्यादा कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इसके दो साल बाद जो असल समस्या आने वाली है, वह तो खत्म नहीं हुई। हमारे यहां अच्छे कॉलेजों में सीटें ही इतनी कम हैं कि क्या कहें। चलिए मान लेते हैं, आप बारहवीं के बोर्ड एक्जाम को भी खत्म कर देते हैं, कॉलेजों में दाखिला भी उसी तरह लॉटरी के आधार पर देने लगते हैं जैसे कि सरकारी फ्लैट्स आवंटित किए जाते हैं, तब भी आपका तनाव तो खत्म नहीं होगा। सोचिए, प्लेटफॉर्म पर एक ट्रेन खड़ी है और यात्री इतने कि दस ट्रेनों में भी नहीं समाएं। तो ऐसे में ट्रेन के दरवाजों को चौड़ा करने से क्या काम चलेगा? आपको तो ज्यादा ट्रेनों की दरकार होगी।
हमारी पिछली जनरेशन में कुछ ऐसे कॉलेज थे, जिनकी अपनी प्रतिष्ठा थी। अजीब बात यह है कि आज भी उन्हीं कॉलेजों को ही प्रतिष्ठित माना जाता है। मानो सरकार ने नई यूनिवर्सिटी खोलनी ही बंद कर दी। अब कुछ आंकड़ों पर गौर फरमाते हैं। वर्ष 1999 में 3 लाख 80 हजार स्टूडेंट्स ने बारहवीं की सीबीएसई एक्जाम दी। वर्ष 2009 तक आतेआते यही आंकड़ा बढ़कर 8 लाख 90 हजार तक पहुंच गया। यह तो सिर्फ सीबीएसई के छात्रों की बात है। यदि आप आईसीएसई के साथसाथ राज्य बोर्ड के छात्रों की संख्या पर भी गौर करें तो यह आंकड़ा दस गुना से भी ज्यादा होगा।
इस लिहाज से एक मोटा अनुमान लगाया जा सकता है कि इस साल बारहवीं की परीक्षा में तकरीबन एक करोड़ स्टूडेंट बैठे होंगे। ऐसे में कह सकते हैं कि इन एक करोड़ स्टूडेंट्स में से कम से कम दस फीसदी बेहतरीन यानी 10 लाख स्टूडेंट तो किसी बढ़िया, प्रतिष्ठित कॉलेज में दाखिला पाने के हकदार हैं। लेकिन क्या हम हर साल बेहतरीन दस लाख कॉलेज सीटें मुहैया करवा सकते हैं? आखिर सालदरसाल ऐसे स्टूडेंट के साथ क्या होता है? ऐसे में वे किधर जाएं?
यदि हम अपने बेहतरीन छात्रों को शिक्षा के बेहतर अवसर मुहैया नहीं करवा रहे हैं, तो क्या हमारा देश पिछड़ नहीं रहा है? दरअसल सरकार को कई मामलों में अपनी टांग अड़ाने में मजा आता है। वह ऐसी एयरलाइन चलाती है, जो कभी पैसा नहीं बनाती। उसे स्टील भी बनाना है, जो उससे कहीं समर्थ लोग आसानी से बना सकते हैं। लेकिन सरकार नई पीढ़ी को संवारने के काम से नहीं जुड़ना चाहती। हम असल मसलों पर गौर ही नहीं करना चाहते। हमें देश के हर राज्य की राजधानी में नए, उच्चस्तरीय, बड़े विश्वविद्यालयों की जरूरत है, लेकिन इनमें हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है। हम मौजूदा कॉलेजों की मूल्यांकन प्रणाली और रेग्यूलेटरी बॉडी को तय करने में समय खपा सकते हैं। हम एक परीक्षा को खत्म करके इसकी जगह दूसरी परीक्षा शुरू करना चाहते हैं। हम इस पर अंतहीन बहस कर सकते हैं। इस बीच हमारी एक पूरी प्रतिभावान पीढ़ी बर्बाद होती है तो हो जाए, लेकिन हमने तो ठान लिया है कि हम इस बारे में कुछ नहीं करेंगे।
मैंने 94 पन्नों की यशपाल रिपोर्ट पढ़ी है। इसमें कुल मिलाकर यही कहा गया है कि विश्वविद्यालयों को ऐसे काम करना चाहिए, शिक्षा इस तरह की होनी चाहिए। और भी कई बातें इस रिपोर्ट में हैं, लेकिन किसी बारे में पक्का कुछ नहीं कहा गया है। इसमें कोई त्वरित या पुख्ता कदम उठाने की बात नहीं है। इसमें कोई आंकड़े नहीं हैं। यह बेहद आलंकारिक, पुरानी और उबाऊ अंग्रेजी में लिखी गई है, जिससे बाबूशाही की बू आती है। हमें शिक्षा की बेहतरी के लिए 94 पन्नों की रिपोर्ट और 900 परिचर्चाओं की जरूरत नहीं है।
जल्द से जल्द नए कॉलेज खोलने की जरूरत है। हमने यूनिवर्सिटी का जो टाइमबम बनाया है, उस बारे में यदि जल्द ही कुछ नहीं किया गया तो देश का बेहतरीन टेलेंट हताश हो जाएगा और वह व्यवस्था के खिलाफ सड़कों पर उतर आएगा। स्टूडेंट्स की संख्या और उनकी क्षमता के हिसाब से कॉलेजों को लेकर हमारा स्पष्ट नजरिया होना चाहिए। इस लिहाज से हमारे यहां समुचित अनुपात में ग्रेड, बीग्रेड सीग्रेड कॉलेज हों।
अमेरिका में सर्वाधिक अंक हासिल करने वाले शीर्ष दस से पंद्रह फीसदी छात्रों को श्रेष्ठ कॉलेजों में दाखिला मिलता है। इस लिहाज से हमें हर साल दस से पंद्रह फीसदी ग्रेड कॉलेज सीटों की दरकार है। वास्तव में भविष्य के विकास के लिहाज से यह आंकड़ा दुगुना होना चाहिए। हर राज्य को यह जिम्मेदारी उठानी चाहिए कि वह हरसंभव बेहतरीन यूनिवर्सिटी बनाए।
उसके लिए जमीन, बुनियादी संरचना समेत बाकी मदद भी मुहैया कराए ताकि हम अगले पांच सालों में इस लक्ष्य को हासिल कर सकें। अन्यथा हम एक एक्जाम को खत्म कर दूसरी बनाएंगे। हम एक कोटा का समर्थन और दूसरे का विरोध करेंगे। यह पुराने, थके हुए, अक्षम भारत की पहचान है। हम चर्चा तो खूब करते हैं, लेकिन करना कुछ नहीं चाहते। यह युवा पीढ़ी के लिए अच्छा कतई नहीं है।
लेखक भारतीय अंग्रेजी के प्रसिद्ध युवा उपन्यासकार हैं।
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गीतिका – आचार्य संजीव ‘सलिल’

‘सलिल’ को दे दर्द अपने, चैन से सो जाइए.

नर्मदा है नेह की, फसलें यहाँ बो जाइए.

चंद्रमा में चांदनी भी और धब्बे-दाग भी.

चन्दनी अनुभूतियों से पीर सब धो जाइए.

होश में जब तक रहे, मैं-तुम न हम हो पाए थे.

भुला दुनिया मस्त हो, मस्ती में खुद खो जाइए.

खुदा बनने था चला, इंसा न बन पाया ‘सलिल’.

खुदाया अब आप ही, इंसान बन दिखलाइए.

एक उँगली उठाता है जब भी गैरों पर; सलिल’

तीन उँगली चीखती हैं, खुद सुधर कर आइए.